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________________ 9 श्री आवकाचार जी अदेवं जेन दिस्टंते, मानते मूढ संगते । तेरा तीव्र दुष्यानि, नरयं तिरयं च पर्त ।। ६१ ।। अन्वयार्थ - (अदेवं देव प्रोक्तं च ) जो अदेवों को देव कहते हैं अर्थात् जिनमें कोई देवत्वपना तो दूर चेतनपना भी नहीं है। जो जड़ पत्थर के बनाये गये हैं उनको देव कहता है, मानता है वह तो ऐसा है जैसे (अंधं अंधेन दिस्टते) कोई अंधा अंधे को देखे (मार्ग किं प्रवेसं च) और उससे मार्ग पूछे कि यह रास्ता कौन सा है (अंध कूपं पतंति ये) वह उसे हाथ पकड़कर ले जाये और दोनों अंधे कुएँ में गिर पड़ें। इसी प्रकार (अदेवं जेन दिस्टंते) जो जीव अदेवों को देखता है दर्शन करता है (मानते मूढ संगते) और मूर्खों की संगति से उनकी मान्यता करता है (ते नरा तीव्र दुष्यानि) वह मनुष्य तीव्र दुःखों को भोगता हुआ (नरयं तिरयं च पतं) नरक और तिर्यंचगति में चला जाता है। चैतन्यता से हीन जो, अज्ञान जड़ स्वयमेव है। उनको बना आराध्य ये नर, कह रहे ये देव हैं । अन्धों को अन्धेराज ही यदि, स्वयं पथ दिखलायेंगे । तो है सुनिश्चित वे पथिक जा, कूप में गिर जायेंगे ॥ जिन मूढ़ पुरुषों पर, कुसंगति का अकाट्य प्रभाव है। जिनके हृदय में राज्य करता, भेदज्ञान अभाव है । वे देव सी करते अदेवों की, सतत् आराधना । नर्क स्थली या तियंच गति पा, दुःख वे सहते घना ॥ विशेषार्थ यहाँ अदेवों की मान्यता कैसी है, इसका उदाहरण देकर बताया जा रहा है कि एक अंधा दूसरे अंधे से मार्ग पूछे और वह अंधा उसका हाथ पकड़कर मार्ग बताने चले और दोनों अंधे कुएँ में गिर पड़ें। यही दशा संसारी बहिरात्मा जीव की हो रही है कि वह तो वस्तु स्वरूप जानता नहीं है, धर्म-कर्म का कोई विवेक नहीं है और अन्य अन्धों का अनुकरण करता है। मूर्खों की संगति से अदेवों की पूजा मान्यता करता है, इससे संसार में दुःख भोगता हुआ नरक और तिर्यंच गति में चला जाता है। यहाँ सद्गुरू अदेवों के दर्शन करने को भी बहिरात्मपना बता रहे हैं। जो उनकी मान्यता वन्दना पूजा करते हैं वह तो दुर्गति का ही कारण बनाते हैं, यहाँ तो अदेवों का दर्शन करना, मान्यता करना, ु ( चंचलजी) yo.viyo. newsne ५० गाथा ६१-६४ मूर्खों की संगति पतन का कारण है। अदेवों को देव कहने और उनकी मान्यता करने का क्या परिणाम होता है यह आगे की गाथा में कहते हैं अनादि काल भ्रमनं च, अदेवं देव उच्यते । अनृतं अचेत दिस्टंते, दुर्गति गमनं च संजुतं ।। ६२ ।। अनृतं असत्य मानं च, विनासं जत्र प्रवर्तते । ते नरा थावरं दुषं इन्द्री इत्यादि भाजनं ।। ६३ ॥ मिथ्यादेव अदेवं च, मिथ्या दिस्टी च मानते । मिथ्यातं मूढ दिस्टी च, पतितं संसार भाजनं ॥ ६४ ॥ अन्वयार्थ - (अदेवं देव उच्यते) जो अदेवों को देव कहते हैं (अनादि काल भ्रमनं च ) उनका अनादिकाल तक संसार में ही भ्रमण होता है (अनृतं अचेत दिस्टंते) जो ऐसे झूठे अचेतन अदेवों को देव मानकर दर्शन करते हैं ( दुर्गति गमनं च संजुतं) वे संसार में तो भ्रमण करेंगे ही पर दुर्गतियों में ही गमन होगा और उन्हीं से संयुक्त रहेंगे। (अनृतं असत्य मानं च) जो झूठे मिथ्या और अचेतन अदेवों को देव मानते हैं (विनासं जत्र प्रवर्तते) वह विनाश की ओर ही प्रवर्तते हैं अर्थात् विनाश की ओर ही चले जाते हैं (ते नरा थावरं दुषं) ऐसे मनुष्य स्थावर काय का दुःख भोगते हैं (इन्द्री इत्यादि भाजनं ) जहां मात्र स्पर्शन इन्द्रिय होती है, अत्यन्त पराधीन रहते और बहुत वेदना पाते हैं। (मिथ्यादेव अदेवं च ) ऐसे कल्पित मिथ्यादेव और अदेवों को ( मिथ्या दिस्टी च मानते) मिथ्यादृष्टि ही मानते हैं (मिथ्यातं मूढ दिस्टी च) ऐसे मिथ्यात विपरीत मान्यता में फंसा हुआ मिथ्यादृष्टि जीव जो बहिरात्मा है वह (पतितं संसार भाजनं ) संसार रूपी कूप में पड़ा रहता है। विशेषार्थ यहाँ अदेवों को देव कहने और उनकी मान्यता करने का क्या परिणाम होता है यह बताया जा रहा है। जो अदेवों को देव कहते हैं झूठे, अचेतन, जड़, पत्थर आदि के दर्शन करते हैं। बहिरात्मा संसारी मायामोह में फंसा लोकमूढ़ता के वश मूर्खों की संगति में अदेवों को देव मानकर पूजता है। जैसे-चाकू, मूसल, चूल्हा, देहली, तलवार, कलम, दावात, वही आदि को देव मानकर पूजा मान्यता cnca
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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