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________________ ७ श्री आवकाचार जी स्वरूप भगवान आत्मा है। ऐसे विलक्षण अमूल्य चिन्तामणि रत्न को छोड़कर बहिरात्मा संसार के प्रपंच के अर्थ लगा है अर्थात् संसार के कार्यों में दत्त-चित्त है, अपने आत्मस्वरूप को भूला है और धन, पुत्र, परिवार, मकान, जमीन-जायदाद, दुनियांदारी के प्रपंच में लगा है। उन्हीं को संभालने बनाने करने में लगा है, अपनी कोई सुध-बुध ही नहीं है । यहाँ कोई प्रश्न करे कि जब शरीर, धन, पुत्र, परिवार आदि का संयोग है तो इनकी व्यवस्था संभाल करे या न करे ? जब तक शरीर संयोग है, संसार में है तब तक रोटी, कपड़ा और मकान तो चाहिये और इसके लिये कोई न कोई उद्यम व्यापार आदि करना आवश्यक है और इसके लिये यह दुनियांदारी के प्रपंच करना ही पड़ते हैं। यह न करें तो कैसे काम चलेगा, इसके लिये क्या किया जाये ? इसका समाधान करते हैं कि यहाँ करने या नहीं करने की बात नहीं है। वह तो जो जिस भूमिका, जैसे कर्मोदय संयोग में है, वह तो सब करना ही पड़ता है, वैसा ही सब होता है। यहाँ तो यह समझना है कि इन सबको ही इष्ट, उपादेय हितकारी और अपना सब कुछ समझकर कर रहा है, इन सबसे भिन्न मैं जीव आत्मा हूँ, इसकी तो खबर ही नहीं और सबका कर्ता बना है यही बहिरात्मपना है, जो संसार का मूल आधार है धरम न जानत बखानत भरमरूप, ठौर ठौर ठानत लराई पच्छपात की। भूल्यो अभिमान में न पांउ धरे धरनी में, हिरदे में करनी विचारे उतपात की ॥ फिरे डाँवाडोल सौं' करम के कलोलिन में, रही अवस्था बघूले कैसे पात की। जाकी छाती ताती कारी कुटिल कुवाती भारी, ऐसो ब्रह्मचाती है मिथ्याती महापातकी ॥ (समयसार नाटक) अर्थ- जो वस्तु स्वभाव से अनभिज्ञ है, जिसका कथन मिथ्यात्वमय है और एकान्त का पक्ष लेकर जगह-जगह लड़ाई करता है। अपने मिथ्यात्व ज्ञान के अहंकार में भूलकर (धरती पर पाँव नहीं टिकाता और चित्त में उपद्रव ही सोचता है) कर्म के झकोरों से संसार में डाँवाडोल हुआ फिरता है अर्थात् विश्राम नहीं पाता सो ऐसी दशा हो रही है, जैसे- वघरूले (आंधी) में पत्ता उड़ता फिरता है। जो हृदय में क्रोध SYA YA YA AKAN YA. ४७ गाथा ५२ से तप्त रहता है, लोभ से मलिन रहता है, माया से कुटिल रहता है, मान से बड़े बोल बोलता है। ऐसा आत्मघाती और महापापी मिथ्यात्वी बहिरात्मा होता है। संसारी कार्य करने का विरोध नहीं है, पर अज्ञानी कर्ता और जिम्मेदार बनकर करता है, इससे स्वयं दु:खी, चिन्तित भयभीत रहता है। नाना प्रकार के कर्म पापादि करके स्वयं अनन्त कर्मों का बन्ध कर दुर्गति में जाता है। यहाँ समझना यह है कि हमें जो यह अवसर मिला है यह मानुष पर्याय, सुकुल सुनियो जिनवाणी । इह विधि गये न मिले, सुमणि ज्यों उदधि समानी ॥ इसका सदुपयोग करें, भेदज्ञान, तत्व अभ्यास, शास्त्र स्वाध्याय, सत्संग का पुरुषार्थ कर वस्तु स्वरूप समझें कि इस शरीरादि से भिन्न, मैं एक अखंड, अविनाशी, चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ। यह जो कर्मोदायिक संयोग है, जो भी परिणमन चल रहा है इसका मैं कर्ता नहीं हूँ। कार्य करने में कोई आपत्ति नहीं है पर सेठ और मुनीम की अपेक्षा है, जैसे- सेठ कुछ नहीं करता हुआ भी मालिक जिम्मेदार है और मुनीम सब कुछ करता हुआ भी मालिक नहीं है, बंधा नहीं है । धर्म मिलकियत नहीं ; मालकियत छुड़ाता है और इसी से यह जीव सुखी आनंद मय होता हुआ मुक्त हो सकता है। यह बहिरात्मा इसी संसारी व्यामोह प्रपंच में फंसा हुआ कुदेवादि की मान्यता करता है इसका वर्णन करते हैं कुदेवं प्रोक्तं जेन, रागादि दोस संजुतं । कुन्यानं त्रिति संपूर्न, न्यानं चैव न दिस्टते ॥ ५२ ॥ अन्वयार्थ - (कुदेवं प्रोक्तं जेन) कुदेव उनको कहते हैं (रागादि दोस संजुतं) जो रागादि दोषों सहित होते हैं (कुन्यानं त्रिति संपून) तीनों कुज्ञान- कुमति, कुश्रुत, कुअवधि से पूर्ण होते हैं (न्यानं चैव न दिस्टते) उनमें ज्ञान का अंश भी दिखलाई नहीं देता । विशेषार्थ - यहाँ यह बताया जा रहा है कि बहिरात्मा संसारी व्यामोह प्रपंच में फंसा हुआ सच्चे देव, अपने आत्म स्वरूप को तो जानता ही नहीं है। अपनी अमूल्य निधि चिन्तामणि रत्न निज शुद्धात्मा को छोड़ बैठा है, भूला हुआ है और संसारी कामना की पूर्ति हेतु कुदेवादि की मान्यता पूजा भक्ति करता है। कुदेव किन्हें कहते
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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