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________________ श्री आचकाचार जी गाथा-४८,५१ COOa में बहिरात्मा बना हुआ है। अपने सत्स्वरूप को जानले तो अन्तरात्मा हो जाये और अर्थात् परमानंदमय है और जब अपने शुद्धस्वभाव में पूर्ण स्थिर हो जाये तो परमात्मा अपने शुद्धस्वभावमय हो जाये तो परमात्मा हो जाये। यह अनादि से मिथ्या मान्यता, है, परमानंद मय है। मिथ्यात्व सहित होने के कारण अपने आपको भूला हुआ है और अभी भी अपने यहाँ कोई प्रश्न करे कि इससे क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ? सत्स्वरूप को जानने का प्रयास, पुरुषार्थ नहीं कर रहा है, संसारी माया मोह में ही उसका समाधान करते हैं, यहां यह प्रयोजन सिद्ध हुआ कि पंच परमेष्ठी को ७ लिप्त तन्मय हो रहा है इसलिये अपने सत्स्वरूप का श्रद्धान शुद्धात्मानुभूति नहीं हो नमस्कार करते हैं तो उसमें अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु आते हैं, रही है। विपरीत कारणों में लगा है इसीलिये बहिरात्मा है, अनुकूल कारणों में लग 5 तो यहां साधु आदि को नमस्कार करने का उद्देश्य यही है कि-जिस समय वह जाये तो अन्तरात्मा हो जाये, अपने में लीन स्थिर हो जाये तो परमात्मा हो जाये। निर्विकल्प दशा में है तब परमात्मा के बराबर है इसलिये नमस्कार करते हैं। बाहर वैसे स्वभाव से परमात्म शक्ति स्वरूप तो है ही। इसी बात को श्री तारण स्वामी ने , का कोई भेष, व्रत, संयम आदि वंदनीय नहीं है, आत्मा की वह शुद्ध परिणति ही न्यान समुच्चयसार जी में बहुत स्पष्ट कहा है वंदनीय है और निर्विकल्प दशा, वीतरागी साधु होने पर ही होती है। इसी बात को ममात्मा मम सुख,ममात्मा सखात्मन । देवसेनाचार्य तत्वसार में कहते हैंदेहस्थोपि अदेहीच , ममात्मा परमात्म धुर्व ॥४४॥ जो अप्पाणझायदि, संवेयण चेयणाई उवजुत्तो। अब यहाँ किन परिणामों से कैसा होता है उसका वर्णन करते हैं सो हबा वीयराओ,णिम्मल रयणत्तओ साहू॥४४॥ प्रथम, परमात्मा का स्वरूप कहते हैं जो स्व संवेदन चेतनादि से युक्त साधु आत्मा को ध्याता है वह निर्मल रत्नत्रय आत्मा परमात्म तुल्यं च,विकल्प चित्तन कीयते। , का धारक वीतराग हो जाता है। सुद्ध भाव स्थिरी भूतं,आत्मनं परमात्मनं ।। ४८॥ दसण णाण चरित, जोई तस्सेह णिच्छय भणइ। जो प्रायदि अप्पाणं, सचेयणं सब भाव? ॥४५॥ अन्वयार्थ- (आत्मा परमात्म तुल्यं च) आत्मा, परमात्मा के बराबर है जब जो योगी सचेतन और शुद्धभाव में स्थित आत्मा को ध्याता है उसको इस (विकल्प चित्त न कीयते) चित्त में कोई विकल्प न करता हो (सुद्ध भाव स्थिरी लोक में निश्चय दर्शन, ज्ञान, चारित्र कहते हैं। निश्चय से वर्तमान में भी यह आत्मा भूतं) शुद्ध स्वभाव में हमेशा के लिये स्थिर हो जाये तब (आत्मनं परमात्मन) आत्मा - परमात्मा है, स्वानुभूति से इसकी सिद्धि होती है। ही परमात्मा है। आगे अन्तरात्मा किसे कहते हैं उसके स्वरूप का वर्णन आगे की गाथा में हैविशेषार्थ- यहाँ परमात्मा के स्वरूप का वर्णन किया जा रहा है, बड़ी अपूर्व विन्यानं जेवि जानते, अप्पा पर परषये। बात कही जा रही है, क्योंकि जिस समय जैसे भावों में आत्मा है, उस समय वह परिचये अप्प सहावं,अंतर आत्मा परषये ॥४९॥ वैसा है; तो यहां यह बताया जा रहा है कि जिस समय चित्त में कोई विकल्प न कर रहा हो अर्थात् निर्विकल्प दशा में हो, उस समय आत्मा परमात्मा के समान है, जो अन्वयार्थ- (विन्यानं जेवि जानते) जो कोई भेदविज्ञान जानता है (अप्पा पर हमेशा के लिये अपने शुद्धस्वभाव में स्थिर हो जाये वह आत्मा ही परमात्मा है। 5 परषये)आत्मा और पर को पहिचानता है (परिचये अप्प सद्भाव) जिसे अपने आत्म यहाँ दो बातें महत्वपूर्ण समझने की है कि जब चित्त में कोई विकल्प न करता स्वभाव का परिचय, अनुभूति हो गई (अंतर आत्मा परषये) वही अंतर आत्मा हो तो आत्मा परमात्मा के बराबर है- तो संसार में मिथ्यात्व दशा में कभी एक समय कहलाता है। के लिये भी जीव विकल्प शून्य होता ही नहीं है सम्यक्दर्शन होने पर निर्विकल्प विशेषार्थ- यहां अंतरात्मा किसे कहते हैं उसका स्वरूप बताया जा रहा है। दशा बनती है। जब चेतना निर्विकल्प दशा में है, उस समय वह परमात्मा के समान जो जीव भेदविज्ञानजानता है अर्थात् इस शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड, अविनाशी
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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