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________________ ७७७ १२ श्री आवकाचार जी काल, इनके समूह को ही विश्व कहते हैं। इनमें चार द्रव्य-धर्म, अधर्म, आकाश और काल तो द्रव्य, गुण, पर्याय तीनों से त्रिकाल शुद्ध हैं। जीव और पुद्गल दो द्रव्य ऐसे हैं, जो द्रव्य गुण से शुद्ध होते हुए भी पर्याय से अशुद्ध हैं । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि द्रव्य-गुण से शुद्ध हैं तो पर्याय से अशुद्ध कैसे हैं ? इसी बात को समझना है यह समझ में आ जावे तो सारी समस्या सुलझ जावे। देखो, यह बिजली के बल्व पर लाल कागज लगा है तो इसका प्रकाश कैसा होगा ? लाल होगा। क्यों ? क्योंकि उस पर लाल कागज लगा है, अगर लाल कागज न होवे तो प्रकाश कैसा है ? सफेद है, शुद्ध है। इसी प्रकार द्रव्य के गुणों पर कर्मों का आवरण होने से पर्याय अशुद्ध है। अब यहाँ फिर प्रश्न हो सकता है कि गुणों पर कर्मों का आवरण कैसे है ? तो उसका समाधान है कि जब जीव विभाव परिणमन करता है, तब कर्मों का आस्रव बन्ध होता है और वह गुणों पर छा जाता है। जैसे- सूर्य का प्रकाश पानी पर पड़ने से उसमें से भाप बनती है और वह उड़कर सूर्य के ऊपर छा जाती है जो बादल कहलाते हैं, जिनसे फिर पानी बरसता है तो जैसे बिजली का प्रकाश और उसकी शक्ति शुद्ध है पर लाल कागज लगने से पर्याय अशुद्ध हो गई। सूर्य का प्रकाश, सूर्य की शक्ति अपने में परिपूर्ण शुद्ध है पर बादल छा जाने से उसकी पर्याय प्रकाशत्वपने में अन्तर आ जाता है इसी प्रकार जीव द्रव्य भी अपने गुणों सहित त्रिकाल शुद्ध है, कर्मों का आवरण होने से पर्याय अशुद्ध । ज्ञानी सम्यक दृष्टि पर्याय से भिन्न अपने द्रव्य और गुणों को त्रिकाल शुद्ध देखता और जानता मानता है, यही भेदविज्ञान की महिमा है। इसी बात को अमृतचन्द्राचार्य ने समयसार कलश में कहा है भेद विज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन् । अस्यैवाभावतो बद्धा, बद्धा ये किल के चन् ॥५/१३१|| भेद विज्ञान से ही सिद्ध होते हैं और कोई भी जीव सिद्ध हो सकता है। संसार में जो जीव कर्मों से बंधे हैं वह भेदविज्ञान के अभाव के कारण बंधे हैं। जो जीव भेदविज्ञान का पुरुषार्थ करे वह भेदविज्ञान की महिमा से ही सम्यक्दृष्टि और परम्परा सिद्ध हो सकता है। यहाँ से धर्म का प्रारम्भ होता है। हम यहाँ-वहाँ की बातों से, यहाँ-वहाँ की क्रियाओं में उलझकर अपने समय का और जीवन का दुरुपयोग करते हैं; इसीलिये इतने सब शुभयोग पाते हुए संसार में भटक 24 SYANA V G GS AT YEAR AXT YEAR. ४१ गाथा ४५ रहे हैं और दुःखी अशान्त हो रहे हैं। पं. बनारसीदास जी ने समयसार नाटक में कहा है भेदविज्ञान जग्यो जिनको घट, शीतल चित्त भयो जिमि चन्दन | केलि करें शिव मारग में जग मांहि, जिनेश्वर के लघु नन्दन ॥ सत्य स्वरूप प्रगट्यो जिनके मिट्यो मिथ्यात अवदात निकन्दन । शान्त दशा तिनकी पहिचान, करें कर जोर बनारसी वन्दन ॥ प्रमुख बात धर्म के मर्म को समझकर भेदविज्ञान का पुरुषार्थ करें तो सब सहज में हो सकता है। जिनको भेदविज्ञान के द्वारा सम्यक्दर्शन हो गया, उनकी दशा का वर्णन सद्गुरुदेव तारण स्वामी कर रहे हैं। इसी क्रम में और आगे कहते हैं दर्सन न्यान संजुक्तं चरनं वीर्ज अनन्तयं । मय मूर्ति न्यान संसुद्धं, देह देवलि तिस्टिते ।। ४५ ।। अन्वयार्थ - (दर्सन न्यान संजुक्तं) दर्शन ज्ञान सहित (चरनं वीर्ज अनन्तयं) अनन्त वीर्य का धारी, चारित्रमयी (मय मूर्ति न्यान संसुद्धं) ज्ञानमयी मूर्ति, परम शुद्ध, अरिहंत परमात्मा (देह देवलि तिस्टिते) इस देह देवालय में ही विराजमान है । विशेषार्थ- यहाँ अरिहंत परमात्मा को देह देवालय में देखा जा रहा है, जो अनन्त वीर्य के धारी, सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्रमयी हैं। ज्ञानमयी मूर्ति परम शुद्ध हैं, जो केवल ज्ञानमय ही हैं वही अरिहंत परमात्मा इस देह देवालय में विराजमान हैं बाहर नहीं हैं, जो बाहर हैं, पर हैं, वह अपने लिये अपने में, अपने अरिहंत परमात्मा हैं, मेरा उनसे कोई सम्बन्ध नहीं है और न वह मेरा कुछ भला-बुरा कर सकते। मेरा अपना देव अरिहंत परमात्मा तो मैं स्वयं हूँ। इसी बात को योगीन्दुदेव योगसार में कहते हैं तित्थहिं देवलि देउ णवि, इम सुइ के वलि वुत्तु । देहा देवलि देउ जिणु, एहउ जाणि णिरुन्तु ॥ ४२ ॥ श्रुतकेवली ने कहा है कि तीर्थों में, देवालयों में देव नहीं है, जिनदेव तो देह देवालय में विराजमान है, इसे निश्चय समझो। देहा देवलि देउ जिणु, जणु देवलिहिं णिए । हास महु पडिहाई इहु, सिद्धे भिक्ख भमेई ॥ ४३ ॥
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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