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________________ DON श्री श्रावकाचार जी गाथा-३० विशेषार्थ- सम्यकदर्शन की बड़ी अपूर्व महिमा है। सम्यक्दृष्टि को ही शुद्ध सुद्धप्पा अरु जिणवरह, भेउ म किं पि वियाणि। षट्कर्म होते हैं, षट्कर्म अर्थात् गृहस्थ श्रावक के आवश्यक छह कर्तव्य-देवपूजा, मोक्खहँ कारण जोइया,णिच्छइएउ विजाणि ॥ गुरूभक्ति,शास्त्र स्वाध्याय, संयम,तप और दान। (योगसार गाथा-२०) मुनियों के भी छह नित्य कर्म हैं- प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, संस्तुति,* शुद्धात्मा और जिन भगवान में कुछ भी भेद न समझो मोक्ष का कारण एकमात्र ७ वन्दना,सामायिक, कायोत्सर्ग। यह षट्कर्म भी सम्यक्दर्शन होने पर ही शुद्ध होते यही है, ऐसा निश्चय से जानो । जो राग-द्वेष से विमुक्त, छूटा हुआ है अर्थात् , हैं। सम्यकदर्शन ही प्रयोजनवान शाश्वत है, सम्यक्त्वी ही अपने शुद्ध ध्रुव स्वभाव जिसके स्वभाव में राग-द्वेष है ही नहीं, जो अरूपी है, शुद्ध है, आनंद स्वरूपी है, की साधना करता है, यथार्थ में सम्यक्दर्शन ही महत्वपूर्ण है। ऐसा शुद्धात्म तत्व सच्चा देव मैं ही हूँ, ऐसे अपने निज शुद्ध स्वभाव की उपासना, सम्यक्त्व अर्थात् आत्म श्रद्धान बिना, बाहर में कितना भी कुछ भी करता रहे, साधना करता है। होता रहे जीव को कभी सुख शान्ति मिलने वाली नहीं, मुक्ति होने वाली नहीं। यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह तो स्वच्छन्दीपना हो गया इससे तो जगत में मिथ्यादृष्टि जीव हर समय, हर दशा में भले ही वह चक्रवर्ती इन्द्र भी क्यों न होवे, देव,गुरू,धर्म की मर्यादा मान्यता ही समाप्त हो जायेगी तथा वर्तमान में जो आकुल-व्याकुल और दु:खी ही रहता है। 3 राग-द्वेष में लिप्त.अशद्ध है और अपने को ही शुद्ध सिद्ध परमात्मा, परमदेव माने ___सम्यकदृष्टि जीव किसी दशा में कैसा ही रहे, हमेशा सुख साता में रहता है तो यह कैसा ज्ञानी, सम्यकदृष्टि है ? क्योंकि उसे इस शरीरादि कर्मों से भिन्न अपने एक अखंड अविनाशी ध्रुव तत्वशुद्धात्मा इसका समाधान करते हैं कि जैसे हम कोई सोने का आभूषण लेकर स्वर्णकार का श्रद्धान अनुभवन हो गया है, यही महत्वपूर्ण, प्रयोजनवान शाश्वत सत्य है,ऐसा के पास जायें और उससे कहें कि इसे बेचना है तो वह क्या देखता है और किसकी सम्यकदृष्टि जीव अपने आपको कैसा जानता, मानता है, इस बात को आगे गाथा में 5 कीमत करता है ? भले ही अपना आभूषण दस तोले का हो, कितना ही सुन्दर कहते हैं अच्छा बना हो परन्तु वह उसमें शुद्ध सोने को देखता है और उसकी कीमत करता संमिक देव उपाचंते,राग दोष विमुक्तयं । है। मैल सहित होने पर भी वह शुद्ध सोने की कीमत आँकता है. इसी प्रकार अरूपं सास्वतं सुद्धं, सुयं आनंद रूपयं ॥३९॥ सम्यक्दृष्टि कैसी ही दशा में होवे, उसकी दृष्टि में तो अपना शुद्ध स्वरूप ध्रुव तत्व अन्वयार्थ- (संमिक देव उपाद्यंते) सच्चे देव की उपासना करता है (राग दोष ही झलकता है, वह उसी की उपासना करता है; क्योंकि उसके आश्रय ही उसकी मुक्ति होने वाली है। इसी बात को समयसार गाथा १४ में कहा हैविमुक्तयं) जो राग द्वेष से विमुक्त है (अरूपं सास्वतं सुद्ध)जो अरूपी है, शाश्वत है, जो पस्सदि अप्पाणं,अबद्ध पुढे अणण्णय णियदं। शुद्ध है (सुयं आनंद रूपयं) वह आनंद स्वरूपी मैं स्वयं हूँ। अविसेसमसंजुत्तं,तं सुद्ध णयं वियाणीहि ॥ विशेषार्थ- सम्यक्दृष्टि सच्चे देव की उपासना करता है, वह सच्चा देव कैसा जो अपनी आत्मा को बन्ध रहित और पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्व रहित, है, कौन है? चलाचलता रहित, विशेष रहित, अन्य के संयोग रहित, ऐसे पाँच भाव रूप से आतम ही है देव निरंजन, आतम ही सदगुरु भाई। 5 देखता है, उसे शुद्ध निश्चयनय जानो। आतम शास्त्र धर्म आतम ही, तीर्थ आत्म ही सुखदाई॥ आगे इसी बात को और स्पष्ट किया हैआत्म मनन ही है रत्नत्रय, पूरित अवगाहन सुख धाम। जो पस्सदि अप्पाणं,अबद्ध पुढे अणण्णमविसेसं। ऐसे देव शास्त्र सद्गुरुवर,धर्म तीर्थ को सतत् प्रणाम ।। अपदेस सन्त मजा,पस्सदि जिण सासणं सध्वं ॥१५॥ (तारण त्रिवेणी-चंचल जी) जो अपनी आत्मा को अबद्ध स्पृष्ट, अनन्य, अविशेष, नियत और असंयुक्त
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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