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________________ Our श्री बाचकाचार जी गाथा-२६,२७ C al क्रोध आ जाता है। बहिर्दृष्टि होने से ही क्रोध आता है और जब तक क्रोध की कषाय के स्वरूप का भी वर्णन करते हैंतीव्रता रहती है तब तक धर्म का जागरण हो ही नहीं सकता। जदि मिथ्या माया संपून,लोक मूढ़ रतो सदा। कुछ भी सुनने में बुरा लगता है तब तक सम्यक्दर्शन नहीं हो सकता। आगे , लोक मूढस्य जीवस्य, संसारे दुष दारुनं ॥२७॥ इसी के साथ मान का वर्णन करते हैं अन्वयार्थ- (जदि मिथ्या माया संपून)जो मिथ्यात्व मायादि कषाय से पूरा मानं अनृतं रागं, माया विनास दिस्टते। भरा हुआ है (लोक मूढ रतो सदा) वह हमेशा लोक मूढता में रत रहता है (लोक असास्वतं भाव विधंते,अधर्म नरयं पतं ॥२६॥ मूढस्य जीवस्य) और लोक मूढता वाले जीव (संसारे दुष दारुन) संसार में हमेशा अन्वयार्थ- (मानं अनृतं राग) मान कषाय में अशुभ राग अर्थात् शरीरादि घोर दुःख भोगते हैं। और (माया विनास दिस्टते) विनाशीक माया पर पदार्थ ही दिखाई देते हैं (असास्वतं. विशेषार्थ- यहाँ माया कषाय का स्वरूप बताया जा रहा है कि जो मिथ्यात्व भाव विधंते) अशाश्वत भाव अर्थात् संसारी भाव बढ़ जाते हैं (अधर्म नरयं पतं) सहित इन अनन्तानुबंधी कषायों में फँसा है, वह लोक मूढता में ही रत रहता है। और यह अधर्म नरक में ले जाता है। मायाचारी का तात्पर्य छल, कपट बेईमानी करना है, माया कषाय वाला विशेषार्थ-मान, अहंकार घमण्ड को कहते हैं और यह संसारी जीव को आठ कंचन,कामिनी और कीर्ति के जाल में फँसा होता है। इनको प्राप्त करने के लिये ही प्रकार का होता है-जाति मद, कुल मद, रूप मद, बल मद, धन मद, ज्ञान मद, तप छल कपट बेईमानी करता है और इनकी प्राप्ति के लिये ही लोकमठता अर्थात मद, ऋद्धि मद। मान महा विष रूप करहिं नीच गति जगत में,मान कषाय वाले लोगों की देखादेखी जैसा सब संसारी अज्ञानी जीव करते हैं. वैसा ही यह भी करता को किसी की हित की बात भी अच्छी नहीं लगती वह किसी की बात सुनना ही नहीं है, मानता है। यह माया कषाय इतनी सूक्ष्म होती है कि सहज पकड़ में नहीं आती, चाहता, अपनी सुनाना चाहता है। अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझता। इसका सूक्ष्म रूप, चाह,रुचि इच्छा है और यह जगत में पर पदार्थ को देखने से ही माता-पिता, गुरूजनों तक का अनादर करता है, अपने आपको ही सबसे श्रेष्ठ पैदा होती है। माया का इतना सूक्ष्म रूप है और फिर जहाँ अनन्तानुबंधी माया होवे अकल मंद मानता है, अपनी बात सबसे मनवाना चाहता है, अगर उसकी मर्जी के वहाँ कहना ही क्या है ? धन और यश के पीछे ही तो मनुष्य पागल रहता है, धन खिलाफ कुछ होता है तो वह नाराज हो जाता है, असहयोग करता है। मान कषाय 5 क्यों कमाता है, परिवार क्यों पालता है? मेरा नाम रहेगा। इस नाम और यश की वाला सबसे ईर्ष्या, बैर, विरोध रखता है। क्रोधी से मानी तीव्र कषाय वाला होता चाह में दुनिया भर के कुकर्म करता है और खुद नरक निगोद में चला जाता है। नाम, है। क्रोध कषाय वाला तो जिससे कोई लड़ाई झगड़ा विरोध हो, उसी से क्रोध, दाम, काम यह तीनों ही संसार का फैलाव करने वाले हैं और इनके पीछे ही यह जीव करता है। मान कषाय वाला तो सभी से रुष्ट रहता है, उसे कोई अच्छा ही नहीं नाना कर्म करता है, संसार में इन्हीं के लिये क्या-क्या नहीं हो रहा, यह सब प्रत्यक्ष लगता। जो कोई उसकी खुशामद,चापलूसी करे, हाँ में हाँ मिलाये, बस उसी से देखने में आ रहा है। साथ क्या जाना है, काम क्या आना है? इसका तो अज्ञानी संतुष्ट प्रसन्न रहता है। मान कषाय वाले को अपने से अच्छा होशियार तो कोई जीव को कोई विचार ही नहीं आता। इनके पीछे ही लोक मूढता में फँसकर मिथ्या दिखाई ही नहीं देता। मान कषाय के साथ मायाचारी और सारे पाप लगे रहते हैं, देव, गुरू,धर्म का सेवन करता है, कुदेवादि की मान्यता पूजा भक्ति करता है और इसका ज्वलंत उदाहरण-रावण है, जिसने अपनी मान कषाय के पीछे अपने वंश लौकिक व्यवहार में ही लगा रहता है। इसका परिणाम क्या होगा? कुछ सोचता ही को भी मिटा डाला और स्वयं भी दुर्गति में चला गया। नहीं है। समाज का, संसार का, अन्य जीवों का क्या होगा, इसका विचार नहीं करता मान कषाय वाले की दृष्टि हमेशा शरीर और पर पदार्थ पर ही रहती है और और न्याय-अन्याय,धर्म-अधर्म,पाप-पुण्य से जैसे-तैसे अपना काम बनाना चाहता इसके हमेशा खोटे भाव चलते रहते हैं, जिससे नरक में जाता है, इसी क्रम में माया है,धन और यश चाहता है, मेरा नाम अमर रहे इसके लिये संकल्प-विकल्प करता
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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