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________________ श्री आक्काचार जी भजन-४२ कर्मों का विश्वास करो, और धर्म का श्रद्धान करो। भेदज्ञान ही करो निरंतर, उर में समता शांति घरो॥ मोह उदय जब आता है, सब ज्ञान ध्यान भग जाता है। शल्य विकल्प ही चलने लगते, भय का भूत दिखाता है। होश नहीं रहता है बिल्कुल, कैसा होगा क्या करो...भेदज्ञान..... २. मोह उदय अज्ञान में चलता, ज्ञान में कुछ नहीं होता है। इतनी दृढ़ता हो अपने में, सारा भय गम खोता है। ज्ञान अज्ञान में यही भेद है, ज्ञान करो या यं ही मरो...भेदज्ञान..... ३. कर्म बंध सबका अपना है, अपने में ही चलता है। जैसा बोया है जिसने जब, वैसा उसका फलता है। कैसा बो रहे हो अब भी तुम, इसका जरा विचार करो...भेदज्ञान..... ४. आतम तो है अरस अरूपी, ज्ञानानन्द स्वभावी है। एक अखंड सदा अविनाशी, सब घट घट में वासी है। ऐसी श्रद्धा होवे अपनी, तो नित ही आनन्द करो...भेदज्ञान.... आध्यात्मिक भजन HD भजन-४४ जिससे है सबकी कीमत,उसकी खबर नहीं है। जड़ मोह में है गाफिल,अपनी फिकर नहीं है। जिसके सुखी रहने पर, सब ही जश्न मनाते। जिसके निकल जाने पर, सब ही रुदन मचाते॥ वह कौन है वा कैसा, इसकी खबर नहीं है . धन कीभी क्या है कीमत,जब जीव निकल जाता। ऊपर से फेंकते हैं, कोई नहीं उठाता। यह जीव क्या बला है, इसकी खबर नहीं है. इस तन की भी क्या है कीमत, इसको भी जला देते। सब देखते रहते हैं, कोई भी कुछ न कहते॥ बेटा व बाप भाई, कोई बसर नहीं है..... घर द्वार पड़ा रहता, संग में न कुछ भी जाता। देखो यह दुनियादारी, माया में ही भरमाता।। जो ज्ञानानंद स्वभावी, उसकी खबर नहीं है कब तक मरोगे यूँ ही, पर की फिकर में भैया। अब चेत जाओ जल्दी, कहती जिनवाणी मैया।। यह आखिरी समय है, इसकी खबर नहीं है .... भजन-४३ पुण्य पाप नहीं करने, निर्वाणनाथ ।। १. जो होवे सो देखत रहने, मोह राग सब हरने... निर्वाण..... २. पुण्य भाव से पाप पलत है, धर्म ध्यान से हरने...निर्वाण..... ३. पुण्य पाप हैं जग के कारण, इनमें अब नहीं मरने... निर्वाण..... ४. पुण्य की दृष्टि धर्म भुलावे, पाप से नरक में परने ... निर्वाण ..... ५. पुण्य पापको उदय चल रहो, हिम्मत करके लरने ...निर्वाण... ६. निजानन्द में रहने को नित, ज्ञानानन्द संयमधरने ...निर्वाण..... Cra तीन लोक तीन काल में सम्यक्दर्शन के समान सुखदायक अन्य कुछ नहीं है। यह सम्यक्दर्शन ही समस्त धर्मों का मूल है, इस सम्यक्दर्शन के बिना सभी क्रियायें दु:ख दायक हैं। जिनेश्वर देव का कहा हुआ दर्शन सम्यकदर्शन है वह गुणों में और दर्शन, ज्ञान, चास्त्रि इन तीनों रत्नों में सार अर्थात् उत्तम है और मोक्ष मन्दिर में चढ़ने के लिये पहली सीढ़ी है।
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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