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________________ श्री श्रावकाचार जी भजन-३५ तू ही आतम परमातम है,तू ही स्वयं भगवान है। चेत अरे ओ मूरख पगले, कहां फंसा हैरान है। १. नरतन पाया है तूने यह, नहीं जरा कुछ ध्यान है। मोह राग फंसा हुआ तू, बना हुआ हैवान है। अब भी सोच समझ ले भैया, तू तो वीर महान है.. २. देख साथ में क्या आया है, साथ तेरे क्या जायेगा। जैसा करेगा वैसा भरेगा, फिर पीछे पछतायेगा। तन धन जन कोई साथ न देवे, विपत पडे नादान है..... ३. किसका तू क्या कर सकता है,जो होना वह होता है। कर्ता बना तू मरा जा रहा,व्यर्थ जिन्दगी खोता है। शांत नहीं रहता है इक क्षण,यह तेरा अज्ञान है. ४. ज्ञायक रहकर देख तमाशा, स्वयं जगत परिणाम है। ज्ञानानन्द स्वभावी है तू , क्यों होता बदनाम है। अपनी दशा सुधारो जल्दी, करो भेदविज्ञान है..... आध्यात्मिक भजन DOG भजन-३७ निज पर लौट आओ भैया, तुमको बुला रही मैया ।। पर में ही तुम भटकत फिर रहे,निज की खबर न आई। तुम्हरी फिकर में सभी किलप रहे, बाप बहिन और भाई...निज..... बहिन तुम्हारी ममल सुदृष्टि, शुद्ध स्वभाव है भाई। पिता तुम्हारे शुद्धातम हैं, मुक्ति श्री है आई... निज..... सखा मित्र रत्नत्रय धारी, बेटा परम पदम हैं। कौन के जाल में कहां फंसे हो, बुला रहे सोहम हैं...निज..... अप्पा परमप्पा तुम खुद हो, अनन्त चतुष्टयधारी। धन शरीर में काये मर रहे, कैसी मति यह मारी...निज..... ज्ञानानन्द कहाते हो तुम, निजानन्द के भैया। पिता तुम्हारे केवलज्ञानी, माँ जिनवाणी मैया...निज..... तारण तरण से गुरुवर तुम्हरे, शुद्धातम बतलावें। नन्द आनन्द में रहो हमेशा, निर्भय निहूँद बनावें...निज..... भजन-३६ रेसाधक, चलो मोक्ष की ओर।। १. अब संसार तरफ मत देखो, यहाँ सभी हैं चोर...रे..... २. मोह का राज्य सबमें है फैला, माया का है दौर ...रे. ३. काम क्रोध मद लोभ घूम रहे, खाली न कोई ठौर...रे..... ४. एक समय साता नहीं जग में, नाच रहा मन मोर...रे ५. रत्नत्रय मयी निज आतम है, यही मोक्ष का छोर...रे..... ६. आनंद परमानंद बरसता, सुख शांति चहुं ओर...रे.... ७. सिद्ध स्वरूपी शुद्धातम हो, ज्ञानानंद का शोर... रे ..... भजन-३८ आतम ज्ञानानन्द सुखरासी॥ १. शुद्ध बुद्ध है अलख निरंजन, है शिवपुर की वासी... २. सिद्ध स्वरूपी शुद्धातम है, शुद्ध बुद्ध प्रकासी..... खुद को भूलकर भटक रही है, योनि लख चौरासी.. पर के मोह में फंसी हुई है, इससे रहत उदासी..... निज सत्ता शक्ति को देखे, मिट जाये भव फांसी..... अनन्त चतुष्टय रत्नत्रय से, है परिपूरण खासी. ब्रह्मानन्द इसका स्वरूप है, सहजानन्द निवासी..... ज्ञानानन्द रहो अपने में, होओ मुक्ति विलासी..... २७८
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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