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________________ l 04 श्री आरकाचार जी भजन-८ मैं ही मेरी सिद्ध शिला हूँ, मैं ही तो ध्रुव धाम हूँ। मैं ही परम ब्रह्म परमेश्वर, मैं ही आतमराम हूँ। १. मैं ही अपना कर्ता धर्ता, मैं तो पूर्ण निष्काम हूँ। एक अखण्ड अविनाशी चेतन, मैं ही तो घनश्याम हूँ.. २. मैं ही अनंत चतुष्टय धारी, वीतराग भगवान हूँ। रत्नत्रय स्वरूप है मेरा , मैं ही पूर्ण विराम हूँ ३. मैं ही ज्ञानानंद स्वभावी, निजानंद अभिराम हूँ। ब्रह्मानंद सहजानंद हूँ मैं, मैं ही सिद्ध भगवान हूँ आध्यात्मिक भजन भजन -१० पुण्य के उदय में सब जगत दास है। पाप के उदय में न कोई भी पास है। १.संसार का सब खेल, पाप पुण्य से चलता। इसमें फँसा यह जीव सदा, इसी में दलता।। २. हो पुण्य का उदय तो, सब काम सुलटते। हो पाप का उदय तो, सभी काम उलटते ।। ३. धन वैभव नाम लक्ष्मी, सभी पुण्य की दासी। हो पाप का उदय तो, लगती जीव की फाँसी॥ ४. जैसा भी हो जिसका उदय, वैसा ही मिलता। ___टाले से भी कुछ ना टले, हिलाये न हिलता। ५. जैसा भी पूर्व कर्म उदय, अपने साथ है। वैसा ही सब हो रहा, सब अपने हाथ है। ६. बेटा न भाई बन्ध, न धन काम में आता। जैसा हो पाप पुण्य उदय, वैसा दिखाता॥ ७. जैसा किया है बंध, सब वह भोगना होगा। रोने से नहीं काम चले, और न खोगा। ८. अब भी संभल जाओ, न कोई बंध तुम करो। धर्म की शरणा गहो, और समता को धरो।। ९.ज्ञानानंद स्वभावी, स्वयं परम ब्रह्म हो। निज सत्ता शक्ति भूल गये, कर्म बंध हो॥ भजन-९ हे साधक, सत्पुरुषार्थ करो। निज सत्ता को जान लिया है, राग में काहे मरो।। १. ब्रह्म स्वरूपी चेतन लक्षण, दृढ़ता काये न धरो। ममल स्वभाव की करो साधना, मद मिथ्यात्व हरो....हे.... ढील ढाल से काम न चलता, क्यों प्रमाद परो। अपनी सुरत रखो निशिवासर, राग में आगधरो....हे.... भेदज्ञान का आश्रय राखो, तत्व निर्णय ही करो। तत्समय की योग्यता देखो, निर्भय निद रहो....हे.... निज स्वभाव का जोर लगाओ, अपने घर में रहो। पर पर्याय को अब मत देखो, मुक्ति श्री वरो....हे.... ज्ञानानन्द स्वभाव तुम्हारा, कर्मों से काये डरो। सत्पुरुषार्थ जगाओ अपना, भव संसार तरो....हे.... ---- ---- । हमें बनाना लक्ष्य महान - करना है आतम कल्याण।। | मानव जीवन का उद्देश्य - प्राणी सेवा साधु भेष ॥ । जगत में निर्मल कीर्ति दान से ही फैलती है। दान देने से बैरी भी बैर छोड़ देते हैं, चरणों में झुक जाते हैं, अपना अहित करने वाला भी मित्र हो जाता है। जगत में दान बड़ा है, सच्ची भक्ति से थोड़ा सा भी दान देने वाला जीव भोग भूमि के भोगों को तीन पल्य पर्यन्त भोग कर देव लोक में चला जाता है। --- २७२
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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