SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७ श्री आवकाचार जी इसी क्रम में इसी अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिये आगे की गाथा कहते हैं - केवली नंत रूपी च सिद्ध चक्र गर्न नमः । बोच्छामि त्रिविधि पार्त्र च, केवल दिस्टि जिनागमं ॥ ७ ॥ अन्वयार्थ (केवली नंत रूपी च) अनन्त चतुष्टय स्वरूप को प्राप्त केवलज्ञानी तथा (सिद्ध चक्र गनं नमः) सिद्धों के समूह को मैं नमस्कार करता हूँ (केवल दिस्टि जिनागमं) केवलज्ञानी भगवान के अनुसार जिनागम में वर्णित (बोच्छामि त्रिविधि पात्रं च) तीन प्रकार के पात्रों को कहता हूँ। विशेषार्थ - अनन्त केवली और उस रूपधारी अर्थात् निर्ग्रन्थ दिगम्बर, वीतरागी साधु और सिद्धों का समूह अर्थात् अनन्त सिद्ध परमात्मा वीतराग मार्ग, जिनागम में वन्दन योग्य कहे गये हैं क्योंकि साधुपद से ही वीतरागता प्रारंभ होती है। साधु पद से ही अरिहन्त, सिद्ध पद होता है। साधु पद में आचार्य, उपाध्याय, साधु यह तीन गुरू कहलाते हैं। अरिहन्त और सिद्ध देव कहलाते हैं। अरिहन्त सशरीरी होते हैं उन्हें परमगुरू भी कहते हैं, देव भी कहते हैं तथा उनकी दिव्य ध्वनि, वाणी को ही जिनवाणी कहते हैं। इसी को शब्दों में गुंथित करने को शास्त्र कहते हैं। सिद्ध परमात्मा अशरीरी परम देव होते हैं क्योंकि यही जीव का वास्तविक सत्स्वरूप है, जो जीव ऐसे अपने सिद्ध स्वरूप की श्रद्धा करता है उसको ही सम्यक्दर्शन होता है । व्यवहार में यह तीन माध्यम हैं- केवली परमात्म देव, वीतरागी साधु गुरू तथा जिनवाणी शास्त्र, जिनके द्वारा हमें अपने स्वरूप को जानने, धर्म मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है। सिद्ध परमात्मा परम देव, श्रद्धा और आराधना के माध्यम हैं। निश्चय से सिद्ध के समान शुद्ध बुद्ध अविनाशी परमानंदमयी मेरा सत्स्वरूप है, ऐसी प्रतीति और अनुभूति ही सम्यक्दर्शन है; इसलिये निश्चय में अपनी स्व श्रद्धा होवे और मुझे भी इसी प्रकार वीतरागी बनना है, मुक्त होना है यह लक्ष्य होवे तो यह हमारे लिये माध्यम, सहयोगी उपकारी हैं तथा इस भावना से नमस्कार करना सार्थक है। तारण स्वामी ने निश्चय अपना निज शुद्धात्म तत्व ही सच्चा देव है, वही इष्ट है, इस अभिप्राय से पहले अपने शुद्धात्म तत्व को नमस्कार किया और व्यवहार में जिन्होंने उस सत्स्वरूप को पा लिया है, उन्हें नमस्कार किया है। Y YA YA YA. ८ गाथा ७-१० इसी क्रम में गुरू का स्वरूप बताते हुए उन्हें नमस्कार किया है - साधऊ साधु लोकेन, ग्रंथ खेल विमुक्तयं । रत्नत्रयं मयं सुद्धं, लोकालोकेन लोकितं ॥ ८ ॥ संमितं सुद्ध धुवं दिस्टा, सुद्ध तत्त्व प्रकासकं । ध्यानं च धर्म सुकलंच, न्यानेन न्यान लंकृतं ॥ ९ ॥ आरति रौद्र परित्याजं, मिथ्या त्रिति न दिस्टिते । सुद्ध धर्म प्रकासी भूतं, गुरं त्रैलोक वंदितं ।। १० ।। अन्वयार्थ - (लोकालोकेन लोकितं) जो लोकालोक को देखने जानने वाला है (रत्नत्रयं मयं सुद्धं) रत्नत्रयमयी शुद्ध है (साधऊ साधु लोकेन) साधु ऐसे निज शुद्धात्म तत्व को देखता और साधता है (ग्रंथ चेल विमुक्तयं) समस्त पाप परिग्रह और वस्त्रादि के बंधनों से मुक्त होकर (संमिक्तं सुद्ध धुवं दिस्टा) सम्यक्त्व से शुद्ध अपने ध्रुव स्वभाव को देखता है (सुद्ध तत्त्व प्रकासकं ) शुद्ध तत्व का प्रकाश करता है (ध्यानं च धर्म सुकलं च) धर्म और शुक्ल ध्यान को धारण करता है (न्यानेन न्यान लंकृतं) ज्ञान विज्ञान की साधना में लीन रहता है (आरति रौद्र परित्याजं) आर्त रौद्र ध्यान जिसके छूट गये हैं (मिथ्या त्रिति न दिस्टिते) तीनों मिथ्यात्व भी जिसको दिखाई नहीं देते (सुद्ध धर्म प्रकासी भूतं) जो शुद्ध धर्म अर्थात् अपने शुद्ध स्वभाव के प्रकाशन में ही रत रहता है (गुरं त्रैलोक वंदितं) ऐसा गुरू तीन लोक में वन्दनीय है। विशेषार्थ जो लोकालोक को देखने जानने वाला है अर्थात् ज्ञान स्वभावी जीव तत्व, जो रत्नत्रयमयी अर्थात् सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र मयी शुद्ध है। समस्त पाप परिग्रह और वस्त्रादि के बंधनों से मुक्त होकर साधु ऐसे निज शुद्धात्म तत्व को देखता और साधता है। यहाँ साधु किसे कहते हैं, यह बताया जा रहा है कि जो जीव आत्मा मनुष्य भव में निज शुद्धात्म तत्व के आश्रय अर्थात् सम्यक्दर्शन होने पर समस्त पाप-परिग्रह, पाँच पाप-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, और परिग्रह तथा चौबीस परिग्रह ( दस बाह्य और चौदह अंतरंग) और समस्त वस्त्रादि के बन्धनों से मुक्त होकर वीतरागी, निर्ग्रन्थ दिगम्बर, महाव्रती साधु होते हैं, वे अपने रत्नत्रयमयी शुद्धात्म तत्व को साधते हैं। सम्यक्त्व से शुद्ध अपने ध्रुव स्वभाव 9 को ही देखते हैं, शुद्ध तत्व का ही प्रकाश करते हैं अर्थात् हमेशा आत्मा की ही चर्चा करते हैं तथा ज्ञान, ध्यान में ही रत रहते हैं। आर्त-रौद्र ध्यान जिनके विला गये हैं,
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy