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________________ O श्री श्रावकाचार जी साधक की स्थिति साधक की स्थिति होता है। कर्म बंधनों से सर्वथा मुक्त होना हो तो एक ही उद्देश्य हो- तत्व ज्ञान की प्राप्ति करना । परमात्म तत्व की ओर दृष्टि होते ही जीव आत्मा, कर्म प्रकृति से विमुख हो जाता है; और इसके लिये सांसारिक संग्रह में भोग बुद्धि, सुख बुद्धि और रस बुद्धि नहीं होना तथा निषिद्ध । अर्थात् उसके पौद्गलिक जगत और कर्म प्रकृति के साथ माने हुए संबंध का विच्छेद हो जाता है , आचरण, पाप, अन्याय, झूठ, कपट आदि का हृदय से त्याग कर देना तभी अपने स्वरूप में और तब वह अपने परमात्म स्वरूप में अपनी वास्तविक अभिन्न स्थिति का अनुभव करता है। तन्मयता होती है, जिससे समस्त कर्म बंध क्षय होते हैं। जिस प्रकार खेत में बोये हुए बीजों के अनुरूप उनके फल समय पर प्रगट होते हैं वैसे ही उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का होना भी जिस ज्ञान के प्रकाश में प्रकाशित होते हैं वह इस मानव शरीर से अहंकार पूर्वक किये हुए कर्मों के संस्कार रूप बीजों के फल अन्य शरीरों में ज्ञान नित्य निरंतर अखंड एक रस रहता है, उसी को अपना स्वरूप समझकर अभिन्न भाव से अथवा इसी शरीर में समय पर प्रगट होते हैं। शरीर, कर्म प्रकृति का कार्य है वह यहां प्राप्त नित्य निरंतर स्थित रहना तत्व ज्ञान है। होता है और यहीं नष्ट हो जाता है, जबकि जीव आत्मा, स्वयं इस जन्म से पहले भी था तथा 8 परमात्म तत्व कभी बदलता नहीं है, वह अटल ध्रुव नित्य शाश्वत है। साधक का लक्ष्य जन्म-जन्मांतर में भी ज्यों का त्यों रहता है। ॐ यदि पल-पल बदलते हुए पर पर्याय संसार से हटकर केवल इस अटल ध्रुव तत्व पर केन्द्रित हो शरीर आदि से अपने को पृथक् जान लेने पर शरीर आदि का कोई नाश नहीं होता एवं जाये तो उसे अविलम्ब परमात्म तत्व से अभिन्नता का बोध हो सकता है क्यों कि तत्व से तो जानने वाले को कोई हानि नहीं होती क्योंकि दोनों पहले से ही पृथक्-पृथक् हैं। नाश होता है पहले से ही अभिन्न है, केवल भूल से परिवर्तनशील और अनित्य की अर्थात संसार की ओर मात्र अज्ञान का, वस्तु स्थिति ज्यों की त्यों रहती है। ज्ञान केवल अज्ञान का विरोधी है न कि अभिमुख हो वह अपने आपको चलायमान संसारी मानने लगा, ध्रुव अचल तत्व में स्वाभाविक क्रिया के अनुष्ठान का । अज्ञान मिथ्यात्व के कारण शरीरादि के साथ एकता करके जीव दु:खों है स्थिति होने से यह भूल दुर हो सकती है। को भोग रहा था। ज्ञान हो जाने से अज्ञान के कार्य रूप संपूर्ण दु:ख मिट जाते हैं, कर्मों के बंधन यश प्रतिष्ठा आदि की कामना, दम्भ, हिंसा, क्रोध, कुटिलता, द्रोह, छूट जाते हैं। सम्यक्दृष्टि ज्ञानी हो जाने से संपूर्ण दु:ख रूप कर्मों का अभाव होने लगता है, कोई अपवित्रता,अस्थिरता,इन्द्रियों की लोलुपता, राग, अहंकार, आसक्ति, ममता, विषमता,अश्रद्धा शारीरिक और व्यवहारिक क्रियाओं का अभाव नहीं होता। और कुसंग आदि दोष जीवन का पतन करने वाले हैं, इनके रहते हुए विशुद्ध तत्व का ज्ञान नहीं ___मनुष्य शरीर आत्म कल्याण करने, परमात्म तत्व की प्राप्ति के लिये मिला है। इस जन्म हो सकता। से पहले के जन्मों में मैने जो शुभ-अशुभ कर्म किये थे, उन्हीं का फल अब भोगना पड़ रहा है और क्रिया मात्र बंध का कारण नहीं है और समस्त क्रियायें कर्मोदय जन्य कर्म प्रकृति द्वारा अभी जो शुभ-अशुभ कर्म कर रहा हूँ उसे भोगने के लिये इस शरीर का नाश होने के पश्चात् भी पुद्गल में ही हो रही हैं। इनमें जो जीव अपने को इनका कर्ता मानता है वह कर्म से बंधता है और मेरी सत्ता रहेगी अर्थात् मैं स्वर्गादि चार गति चौरासी लाख योनियों में कहीं न कहीं रहूंगा और भेदज्ञान पूर्वक जो जीव भिन्न अकर्ता रहता है वह कर्म बंध से छूटता है और जो अपने स्वभाव इन कर्मों के फलों को भोगना पड़ेगा, ऐसा जानकर ज्ञानी इन कर्म फलों से छूटता है। में लीन हो जाता है वह पूर्ण मुक्त हो जाता है। यह नियम है कि प्रकृति के जिस कार्य, दृश्य वर्ग में राग होता है उसके विपरीत या विरोधी 5 इस प्रकार जीव के अज्ञान मिथ्यात्व के कारण से कर्मादि का निमित्त-नैमित्तिक पदार्थों से द्वेष उत्पन्न हो जाता है। वैसे ही चैतन्य चिन्मय स्वरूप होने से जितने अंश में आत्मा संबंध है। सम्यकदर्शन सम्यक्ज्ञान होने होने पर कर्तापन और निमित्त-नैमित्तिक संबंध छूट का पर्याय, संसार में राग होता है, उतना ही कर्म बंध होता है तथा उतने ही अंश में वह अपने जाता है तथा सम्यकचारित्र से मुक्त हो जाता है। चिन्मय स्वरूप से विमुख रहता है ; अत: देष के सर्वथा अभाव के लिये संसार में कहीं भी राग वर्तमान कर्म संयोग में अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति और घटना के नहीं करना चाहिये, जिसके राग-द्वेष का पूर्ण अभाव हो जाता है वही वीतरागी परमात्मा संयोग-वियोग में, मन में हलचल न होना ही साधक की स्थिति है। ३६८
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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