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________________ t o श्री आचकाचार जी गाथा-४४४-४५१ C OOO खेद न मानना, शांत रहना। साधना करते हैं वे साधु कहलाते हैं। तीन लोक और तीन काल में व लोकालोक में मैं १७. तृण स्पर्श परीषह-पांव में कठिन कंकड़ों, नुकीले तृणों के चुभने पर आत्मा ही शुद्धात्मा हूँ, एक अखण्ड अभेद अविनाशी सच्चिदानन्द घन स्वरूप को। भी शांत रहना। ही देखते हैं वही महात्मा और महाव्रतधारी साधु हैं। जो सर्वज्ञ वीतराग प्रभु हैं उस १८. मल परीषह-शरीर पर धूल आदि मल लगने पर ग्लानि, घृणा न होना। * रूप अपने आत्मा को द्रव्य दृष्टि से जानकर शुद्धात्म स्वरूप का एकाग्र होकर ध्यान ७ १९. सत्कार पुरस्कार परीषह-आप आदर सत्कार योग्य होते हुए भी कोई करना, तीन लोक में भरे हुए सर्व आत्माओं को शुद्ध नय के बल से शुद्धात्मा देखना, आदर सत्कार न करे, निंदा करे तो भी शांत रहना। सर्व जीवों को एक आत्मा मय देखना, परम समता भाव में लय हो जाना, सारे भेद २०.प्रज्ञा परीषह-विशेष ज्ञान होते हुए भी उसका अभिमान न करना। विकल्प मिट जाना, यही निश्चय सामायिक है और यही निश्चय महाव्रत है। यदि २१. अज्ञान परीषह-बहुत तपश्चरण आदि करने पर भी ज्ञान की प्राप्ति। यह महाव्रत न हुआ और मात्र बाहरी पांच महाव्रत पाले गये तो वह मोक्ष का साधन नहीं होती इसका खेद नहीं करना। नहीं होता। वास्तव में शुद्धात्मा के अनुभव को ही मोक्ष का साधन कहते हैं यही साधु २२. अदर्शन परीषह- तप बल से अनेक ऋद्धियां उत्पन्न होती हैं, मुझे का चारित्र है, इसको जो साधे वही महात्मा महाव्रती साधु है। अभी तक कुछ नहीं हुआ ऐसा जानकर धर्म श्रद्धान में संशय नहीं करना। जो निकट भव्य सम्यकज्ञान द्वारा हेय, उपादेय को भलीभांति जानकर महाव्रत इस प्रकार साधु सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और संयम से शुद्ध होकर शुद्ध धारण करके संवर-निर्जरा पूर्वक उसी पर्याय में मोक्ष प्राप्ति करना चाहते हैं वे तीन द्रव्यार्थिक नय से अपने शुद्धात्मा को ही सर्वत्र देखते हैं गुप्ति, पांच समिति, पंचाचार, दस धर्म, द्वादस तप का पालन और बाईस परीषह संमिक दर्सनं न्यानं, चारित्रं सुख संजमं । र सहन करते हुए धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान रूप आचरण भी करते हैं क्योंकि बिना जिन रूवी सुद्ध दर्वार्थ,साधओ साधु उच्यते॥ ४४८ ॥ S साधन के साध्य की सिद्धि नहीं होती, इसी बात को आगे गाथा में कहते हैंऊर्थ आर्थ मध्यं च, लोकालोक विलोकित। धर्म ध्यानं च संजुत्तं , प्रकासनं धर्म सुद्धयं । आत्मनं सुखात्मनं, महात्मं च महाव्रतं ॥ ४४९ ।। जिन उक्तं जस्य सर्वन्यं, वचनं तस्य प्रकासनं ॥ ४५०॥ अन्वयार्थ- (संमिक दर्सनंन्यानं) जो सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान (चारित्रं सुद्ध मिथ्यातं त्रिति सल्यं च, कुन्यानं त्रिति उच्यते । संजम) सम्यक्चारित्र पूर्वक शुद्ध संयम का पालन करते हैं (जिन रूवी सुद्ध दर्वार्थ) राग दोषं च जेतानि, तिक्तंते सुद्ध साधवा ।। ४५१॥ व्यवहार में जैसा जिनेन्द्र का रूप है अर्थात् निर्ग्रन्थ दिगम्बर वीतरागी मुद्रा धारण कर 5 अन्वयार्थ-(धर्मध्यानंच संजुत्त) वे साधुधर्म ध्यान में संयुक्त रहते हैं (प्रकासनं जो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय धुव तत्व, शुद्धात्म स्वरूप की (साधओ साधु धर्म सुद्धयं) अपने शुद्ध स्वभाव रूपशुद्ध धर्म का प्रकाश करते हैं (जिन उक्तंजस्य उच्यते) साधना करते हैं वे साधु कहलाते हैं। 2 सर्वन्यं) जिनवाणी में जैसा सर्वज्ञ परमात्मा ने कहा है (वचनं तस्य प्रकासन) उसी (ऊर्ध आर्ध मध्यं च) जो तीन लोक और तीन काल में तथा (लोकालोक अनुसार अपने वचनों से धर्म का सत्य स्वरूप बतलाते हैं। ९ विलोकितं) लोकालोक में देखते हैं कि (आत्मनं सुद्धात्मन) आत्मा ही शुद्धात्मा है (मिथ्यातं त्रिति सल्यंच) जो मिथ्यात्व और तीन शल्य (कुन्यानं त्रिति उच्यते) (महात्मं च महाव्रतं) वही महात्म और महाव्रतधारी साधु हैं। तथा तीन कुज्ञान कहे गये हैं (राग दोषं च जेतानि) और जितने भी राग-द्वेषादि , विशेषार्थ-जो सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र पूर्वक शुद्ध संयम विभाव हैं उनको (तिक्तंते सुद्ध साधवा) छोड़ देते हैं वही सच्चे शुद्ध साधु हैं। का पालन करते हैं, व्यवहार में जिनेन्द्र का रूप अर्थात् निर्ग्रन्थ दिगम्बर वीतरागी विशेषार्थ- चित्त वृत्ति को अन्य चिंताओं से रोककर एक ज्ञेय पर स्थिर करना मुद्रा धारण कर जो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय-ध्रुव तत्व शुद्धात्म स्वरूप की ध्यान कहलाता है। ध्यान का उत्कृष्ट काल उत्तम संहनन के धारक पुरुषों के लिये २४८
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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