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________________ श्री आवकाचार जी परिग्रहं पर पुद्गलार्थं च, परिग्रहं नवि चिंतए । ग्रहणं दर्सनं सुद्धं परिग्रहं नवि दिस्टते ।। ४३२ ।। अन्वयार्थ - (परिग्रहं पर पुद्गलार्थं च ) परिग्रह- धन, धान्य आदि पुद्गल शरीर आदि के लिये होता है (परिग्रहं नवि चिंतए) परिग्रह त्याग प्रतिमाधारी इन परिग्रह की चिंता नहीं करता है (ग्रहणं दर्सनं सुद्धं) अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखता है उसी को ग्रहण करता है (परिग्रहं नवि दिस्टते) परिग्रह को नहीं देखता है। विशेषार्थ आठवीं प्रतिमा तक सम्यकदृष्टि ज्ञानी अपने ब्रह्म स्वरूप में रमण करने से बाह्य क्रिया का कर्तृत्व छोड़ देता है। नवमीं प्रतिमा में पर का स्वामित्वपना, पर को ग्रहण करने की भावना भी समाप्त हो जाती है, मूर्च्छा ममत्व भाव छूट जाता है फिर वह बाह्य परिग्रह धन-धान्य आदि पुद्गल शरीरादि के लिये होता है, उसकी चिंता नहीं करता। उसका दृढ़ श्रद्धान होता है कि मुझे कुछ नहीं चाहिये मैं अपने में स्वयं परिपूर्ण परमब्रह्म परमात्मा हूँ, अपने शुद्धात्म स्वरूप को ही देखता है और ग्रहण करता है फिर इन बाहरी शारीरिक व्यवस्थाओं की न चिंता करता है, न देखता है, न प्रयोजन रखता है; क्योंकि उसके निर्णय में होता है कि पूर्व कर्मोदय जन्य शरीरादि का जैसा परिणमन होना है, हो रहा है और होगा, मुझे अपने लिये कुछ नहीं चाहिये । इस श्रेणी में आकर वह अपने पास की सर्व संपत्ति जिसे देना होता है उसे दे देता है। शरीर से ममत्व भाव, मूर्च्छा छूट जाने से सामान्य आवश्यकतानुसार वस्त्र आदि रखता है। राग-द्वेष आदि आभ्यंतर परिग्रह की मंदता पूर्वक क्षेत्र, वास्तु (मकान) आदि दस प्रकार के बाह्य परिग्रह में से आवश्यक वस्त्र पात्र आदि के सिवाय शेष सब परिग्रह को त्याग देता है, संतोष वृत्ति धारण करता है। बाह्य परिग्रह के दस भेद इस प्रकार हैं- १. क्षेत्र (खेत, जमीन), २. वास्तु (घर, मकान), ३. चांदी रुपया पैसा, ४. सोना रकम आदि, ५. धन (गाय, भैंस), ६. धान्य (गेहूँ आदि अनाज), ७. दासी, ८. दास, ९. वस्त्र, १०. बर्तन । इन दस प्रकार के बाह्य परिग्रह का त्याग करने से मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद यह चौदह प्रकार के अंतरंग परिग्रह भी क्रमशः छूटने लगते हैं। बाह्याभ्यंतर दोनों प्रकार का परिग्रह पापोत्पत्ति तथा आकुलता का मूल है WANA YZAT AND YET. २४० गाथा ४३२, ४३२ ऐसा निश्चय कर बाह्य परिग्रह को छोड़ते हुए अपने मन में अति आनंद मानता है। ऐसा विचार करता है कि आज का दिन धन्य है जब मैं आकुलता और बन्धनों से छूटा, अब निराकुलता से अपने शुद्धात्म स्वरूप की साधना करूंगा। परिग्रह से आरम्भ, चिंता, शोक, मद आदि पाप उपजते हैं जो मूर्च्छा, चित्त की मलिनता के कारण हैं; अतएव संतोष निमित्त मूर्च्छा को घटाना और परिग्रह का त्याग करना आवश्यक है। परिग्रह त्याग प्रतिमा के धारण करने से गृहस्थाश्रम सम्बंधी सर्व भार उतर जाता है जिससे निराकुलता का सुखानुभव होने लगता है। बाह्य परिग्रह का त्याग अंतरंग मूर्च्छा के अभाव के लिये किया जाता है। यदि किसी के पास बाह्य परिग्रह कुछ भी न हो और अंतरंग में मूर्च्छा विशेष हो तो वह परिग्रही है; क्योंकि यथार्थ में मूर्च्छा ही परिग्रह है अतएव भेदविज्ञान के बल से अंतरंग मूर्च्छा को मंद करते हुए बाह्य परिग्रह छोड़ना चाहिये तभी परिग्रह त्याग जनित निराकुल सुख की प्राप्ति होती है। परिग्रह त्यागी को इन बातों पर भी ध्यान देना चाहिये १. परिवार जन औषधि, आहार जल आदि देवें, वस्त्रादि धोवें, व्यवस्था करें शारीरिक सेवा टहल करें तो ठीक और यदि न करें तो आप उन पर दबाव न डाले और न अप्रसन्न हो । २. यह गृह त्यागी या गृहवासी दोनो रूप में रह सकता है। ३. रागादि पूर्ण वातावरण और स्थान से दूर रहे, ऐसे मकान मठ आदि में भी न रहे जहां विकल्प हों । ४. निमंत्रण पूर्वक सद्ग्रहस्थ के यहां आहार करने जावे । ५. बिना दिये कोई भी वस्तु जल, मिट्टी भी न लेवे। १०. अनुमति त्याग प्रतिमा जो आरम्भ परिग्रह की अर्थात् सांसारिक सावद्य कर्म विवाह, गृह बनवाने, बनिज, सेवा आदि कार्यों के करने की सम्मति उपदेश नहीं देता, अनुमोदना नहीं करता, समबुद्धि है, ऐसा अपने आत्म स्वरूप में रत रहने वाला श्रावक अनुमति त्याग प्रतिमाधारी कहलाता है। इसी बात को आगे कहते हैं अनुमतं न दातव्यं, मिथ्या रागादि देसनं । अहिंसा भाव सुद्धस्य, अनुमतं न चिंतए । ४३३ ॥ अन्वयार्थ - (अनुमतं न दातव्यं) आरम्भ परिग्रह सम्बंधी पाप कार्य की
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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