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________________ ७ श्री आवकाचार जी अन्वयार्थ (उववासं फलं प्रोक्तं) उपवास का फल कहा जाता है (मुक्ति मार्गं च निस्चयं) निश्चित मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है (संसारे दुष नासंति) संसार के दु:ख नष्ट हो जाते हैं (उववासं सुद्धं फलं) शुद्ध उपवास अर्थात् निश्चय से आत्मा में वास करना और व्यवहार में पापों का त्याग करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। (मिक्त बिना व्रतं जेन) सम्यक्दर्शन के बिना जो व्रत करते हैं (तपं अनादि कालय) तथा अनादि काल तक तप करे (उववासं मास पाषं च) महिना महिना, पन्द्रह-पन्द्रह दिन का उपवास करे (संसारे दुष दारुनं) वह सब संसार के दारुण दुःख का ही कारण है। (उववासं एक सुद्धं च) यदि एक भी उपवास शुद्ध किया जाये (मन सुद्धं तत्व सार्धयं) जिसमें मन पवित्र हो, आत्म तत्व की साधना सहित हो ( मुक्ति श्रियं पंथं सुद्धं) वह श्रेष्ठ मुक्ति का शुद्ध मार्ग है ( प्राप्तं तत्र न संसया) ऐसा साधक अवश्य ही मुक्ति को प्राप्त होगा, इसमें कोई संशय नहीं है। विशेषार्थ यद्यपि उपवास करना, आहार न करना, आरम्भ न करना, पापों को छोड़ना, एकांत में रहना यह सब व्यवहार चारित्र है, इसकी सार्थकता तभी है जब निश्चय रत्नत्रय स्वरूप निज शुद्धात्मा के श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र रूप निश्चय मोक्ष मार्ग का लाभ हो । शुद्ध भावों की प्राप्ति से कर्मों की विशेष निर्जरा होती है जिससे संसार के दुःखों का नाश होता है। उपवास करना बड़ा भारी तप है; परंतु सम्यक्दर्शन के बिना जिसमें आर्त ध्यान होवे, अनादर रहे, आत्म स्वरूप का बोध न हो वह सब मिथ्या चारित्र संसार का ही कारण है। किसी कषाय वश व्रत तप किये जायें। महीना महीना, पन्द्रह-पन्द्रह दिन के उपवास किये जायें; परन्तु मिथ्यात्व सहित होने से बिना जड़ के वृक्ष समान हैं। कषाय की मंदता हो तो पुण्य बन्ध होता है, कषाय की तीव्रता हो तो पाप बन्ध ही होता है जो संसार के दारुण दुःख का कारण है। यदि एक उपवास भी शुद्ध हो जाये अर्थात् आत्मा में वास हो जाये तो यह बाहर का पाप - परिग्रह और आहार जल का त्याग मन को पवित्र बनाकर आत्म स्वरूप में स्थित करा देता है जिससे निश्चित ही मोक्ष की प्राप्ति होती है इसमें कोई संशय नहीं है । बाह्य का उपवास आत्म ध्यान की साधना में सहकारी होता है, चतुर्थ प्रोषध प्रतिमाधारी सम्यक्दृष्टि ज्ञानी अपने आत्म स्वरूप की साधना ध्यान की सिद्धि के लिये व्रत और तप की साधना करता है इसलिये परीषह उपसर्ग आने पर भी शक्ति 20 SYED AAN GGAA AA GGAN AYAT YEAR. २३४ गाथा - ४१५-४१७ को न छिपाकर प्रत्येक अष्टमी चतुर्दशी को यथाशक्य उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य प्रोषधोपवास कर सामायिक वत सोलह प्रहर तक आहार, आरंभ, विषय- कषाय रहित होकर उत्कृष्ट प्रवृत्ति करना अर्थात् अपने आत्म स्वरूप की साधना में रत रहना ही प्रोषधोपवास प्रतिमा है। ५. सचित्त प्रतिमा आत्मा में वास करने वाला साधक अचेत अर्थात् असावधानी का त्याग कर हमेशा सावचेत रहने के लिये सचित्त प्रतिमा धारण करता है उसका स्वरूप कहते हैं सचित्त चिंतनं कृत्वा चेतयंति सदा बुधैः । अचेतं असत्य तिक्तं च, सचित्त प्रतिमा उच्यते ।। ४१५ ।। सचित्तं हरितं जेन, तिक्तंते न विरोधनं । चेत वस्तु संमूर्छनं च तिक्तंते सदा बुधैः ।। ४१६ ।। सचित्त हरित तिक्तं च, अचेत सार्धं च तिक्तयं । सचित चेतना भावं, सचित्त प्रतिमा सदा बुधैः ॥ ४१७ ॥ अन्वयार्थ - (सचित्त चिंतनं कृत्वा) सावचेत होकर अपने स्वरूप का चिंतवन करते हुए (चेतयंति सदा बुधैः) ज्ञानी हमेशा चैतन्य अर्थात् होश में रहते हैं (अचेतं असत्य तिक्तं च) अचेतपना और असत्य को छोड़ देते हैं (सचित्त प्रतिमा उच्यते) इसे सचित्त प्रतिमा कहते हैं। (सचित्तं हरितं जेन) जो हरित सचित्त वनस्पति का ( तिक्तंते न विरोधनं ) त्याग करते हैं वे उसे छूते और तोड़ते भी नहीं हैं (चेत वस्तु संमूर्छनं च) सचित्त वस्तु तथा जिसमें संमूर्च्छन जीव होते हैं (तिक्तंते सदा बुधैः) ज्ञानी उसे हमेशा के लिये छोड़ देते हैं। (सचित्त हरित तिक्तं च) सचित्त वनस्पति का त्याग करने वाला (अचेत सार्धं च तिक्तयं) अचित्त अर्थात् अचेतन का श्रद्धान भी नहीं करता है, उसे भी छोड़ देता है (सचित्त चेतना भावं) अपने चैतन्य भाव में सचेत सावधान रहना ही (सचित्त प्रतिमा सदा बुधैः) सचित्त प्रतिमा है जिसका ज्ञानी हमेशा पालन करते हैं। विशेषार्थ पांचवीं सचित्त प्रतिमा है, अन्य श्रावकाचारों में इसको सचित्त त्याग
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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