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________________ Oup श्री श्रावकाचार जी गाथा-४०६ ) व्रती श्रावक के त्यागने योग्य विशेष क्रिया-विशेष हिंसा के निंद्य तथा निर्दयता २. सुनने के दस-मांस, मदिरा, अस्थि, अग्नि लगने आदि उत्पात का. के धंधेन आपकरे,न औरों को करावे और न इनकी दलाली करे, जैसे-लाख,मोम, शब्द, अति कठोर शब्द मारो-काटो आदि, करूणा जनक रोने का शब्द, रोग की। गोंद,लोहा, शीशा, हथियार, जूता बेचना आदि।खाद का ठेका लेना. वृक्ष काटना, . तीव्रता का शब्द, धर्मात्मा पुरुष के उपसर्गका समाचार, मनुष्य के मरने का समाचार, घास काटना, तेल पेरना, वन कटी करना आदि।शराब, गांजा,अफीम आदिमादक * धर्म या धर्मात्मा की अविनय का शब्द। पदार्थों का ठेका लेना, बेचना। गाड़ी घोड़ा आदि के किराये का धंधा करना। यद्यपि ३. स्पर्श के दस-चर्मादि अपवित्र पदार्थ, पंचेन्द्रिय बड़ा पशु, दुष्ट पुरुष, व्रत प्रतिमा में केवल संकल्पी त्रस हिंसा का त्याग होता है, आरंभी का नहीं; तथापि र रजस्वला स्त्री, रोम या केश,पंख, नख, छोटा या बड़ा त्रस जीव अचानक मर जाये अयत्नाचार पूर्वक होने वाली आरंभी हिंसा भी संकल्पी के भाव को उत्पन्न करती है। या मरे हुए का स्पर्श हो जाये। व्रती श्रावक को हिंसा तथा व्रत भंग से बचने के लिये निम्न बातों का पालन, ४.मन के संकल्पका-भोजन में किसी पदार्थ को देखकर ग्लानि होना या करना आवश्यक है-१. रात्रि का बनाया हुआ भोजन ग्रहण न करे। २. जाति मल मूत्र की शका होना। बिरादरी के बड़े जेवनारों में भोजन न करे। ३. रसोई बनाते या भोजन करते समय ५.त्याग हुए पदाथ का-त्यागा हुआ पदाथ भाजन करन म आ जाय ता शुद्ध धुले हुए वस्त्र पहिने । ४. नीच तथा निकृष्ट धंधे करने वालों से लेन-देन भोजन तजे। भोजन करते समय कोई चीज लेने के लिये इशारा नहीं करना चाहिये. अथवा उठने-बैठने आदि का व्यवहार न रखे। ५. बाग-बगीचे में भोजन अथवा मौन रखकर भोजन करना चाहिये। अंतराय पालने से रसना इन्द्रिय वश में होती है, गोट न करे।।.पश मनष्य आदि का यट न देखे। ७. फल न तोडे। जल संतोष भावना पलती है, वैराग्य भाव दृढ होता है, संयम पलता है, एषणा समिति क्रीड़ान करे। ९. रात्रि को खेलकूद तथा व्यर्थ भाग दौड़ न करे। १०.जहां बहत पलती है जिससे वचन की सिद्धि आदि अनेक अतिशय उत्पन्न होते हैं। स्त्रियां एकत्र होकर विषय-कषाय बढ़ाने वाले गीत-गान करती हों ऐसे मेले में न व्रती श्रावक सात जगह मौन रखे-१.भोजन करते और पानी पीते समय, जावे और न विषय-कषाय वर्द्धक नाटक खेल आदि देखे, सिनेमा, टी. वी. आदिई २. स्नान, ३. मलमोचन, ४. मैथुन, ५. वमन, ६. विसंवाद, ७. सामायिक के बिल्कुल न देखे। ११. होली नखेले। १२ गालीन देवे, हंसी मसखरी न करे। १३. समय । सदा उठते-बैठते, चलते-फिरते कोई भी कार्य करते समय इस बात का चमड़े के जूते न पहिने । १४. ऊनी वस्त्र न पहिने। १५. हड्डी चमडे की बनी ध्यान रखना चाहिये कि मेरे समान ही सब जीव आत्मा परमात्म स्वरूप हैं। निष्प्रयोजन वस्तुयें काम में नलावे। १६.धोबी से कपड़े न धुलावे। १७.पानी के नलों के डाटों कोई कार्य नहीं करना, जिससे किसी जीव के प्राणों का घात हो, अपने लिये भी में यदि चमड़े का पर्दा लगा रहता हो तो नल का पानी न पीवे। १८.दो घडी दिन रहे विकल्प के कारण बनें ऐसा कोई कार्य नहीं करना। इस प्रकार व्रत प्रतिमाधारी श्रावक से दो घड़ी दिन चढ़े तक हिंसा की निवृत्ति के लिये आहार पानी न लेवे। १९. जिस बारह व्रतों की साधना करते हुए अपने शुद्धात्म स्वरूप की साधना करता है; क्योंकि देश या क्षेत्र में व्रत भंग होता हो वहां न जावे । २०. व्रती, मौन सहित अंतराय द्रव्य संयम के बिना भाव संयम नहीं होता। इसका विवेक रखते हुए मोक्षमार्गी टालकर भोजन करे। २१.स्वाध्याय,सामायिक पाठ आदि के बाद ही भोजन करे। सम्यक्दृष्टि साधक अपने स्वरूप की साधना करता है। व्रत का अर्थ है सीमा में आ २२. रात को स्नान न करे इसमें विशेष त्रस हिंसा होती है। विवेक पूर्वक देखजाना और अव्रती अर्थात् जिसकी कोई सीमा नहीं है। भालकर सब काम करना और नीचे सामने देखकर चलना विशेष आवश्यक है। ३. सामायिक प्रतिमा सिद्ध भक्ति किये पीछे अंतराय माना जाता है। व्रती श्रावक के लिये भोजन सम्यकदर्शन सहित व्रत प्रतिमा का निरतिचार पालन करने वाला तीसरी करते समय टालने योग्य अंतराय सामायिक प्रतिमा धारण करता है१.देखने के दस-गीला चर्म, हड्डी.मांस, चार अंगुल रक्त की धार, मदिरा, सामायिकं नृतं जेन, सम संपूर्न सार्धयं । 9 विष्ठा, जीव हिंसा, गीली पीव, पंचेन्द्रिय मरा हुआ पशु, मूत्र। ऊर्थ आर्थ मयं च, मन रोधो स्वात्म चिंतनं ॥ ४०६॥ २३१
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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