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________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-४०५ Oo २. योग्य क्षेत्र, ३. योग्य काल, ४. योग्य भाव, ५. योग्य आसन, ६. योग्य विनय, क्लेश से उत्साह हीन होकर उपवास में निरादर रूप परिणाम करना। ५. उपवास ७. मन शुद्धि,८. वचन शुद्धि, ९. काय शुद्धि पूर्वक सामायिक करने से परिणाम में योग्य क्रियाओं को भूल जाना। शांति सुख का अनुभव होता है। प्रोषधोपवास के दिन भोगोपभोग एवं आरम्भ का त्याग करने से हिंसा लेश भी सामायिक पाठ के छह अंग हैं-१.प्रतिक्रमण, २.प्रत्याख्यान,३.सामायिक नहीं होती। वचन गुप्ति होने (मौनावलम्बी रहने) अथवा आवश्यकतानुसार धर्म कर्म, ४. स्तुति, ५. वंदना, ६.कायोत्सर्ग। इस प्रकार समभाव पूर्वक आत्म स्वरूप रूप अल्प भाषण करने से असत्य का दूषण नहीं आता। अदत्तादान के सर्वथा त्याग का चिंतवन करने के लिये आवर्त, शिरोनति तथा नमस्कार पूर्वक सामायिक करना। 5 से चोरी का दोष नहीं आता। मैथुन के सर्वथा त्याग से ब्रह्मचर्य व्रत पलता है और सामायिक के पांच अतिचार-१.२.३. मन-वचन-काय को अशुभरूप शरीर आदि परिग्रह से निर्ममत्व होने से परिग्रह रहितपना होता है; इसलिये प्रवर्ताना। ४.सामायिक करने में अनादर भाव करना। ५. सामायिक का समय और प्रोषधोपवास करने वाला ग्रहस्थ उस दिन सर्व सावध योग के त्याग होने से उपचार पाठ भूल जाना। अतिचार लगने से सामायिक दूषित होती है अतएव ऐसी सावधानी महाव्रती है। प्रोषधोपवास के धारण करने से शरीर निरोग रहता है और शरीर की रखना चाहिये जिससे अतिचार दोष न लगें। शक्ति बढ़ती है। सातिशय पुण्य का बंध होकर उत्कृष्ट सांसारिक सुखों की प्राप्ति विशेष-सामायिक के समय क्षेत्र तथा काल का परिमाण करके गृह, व्यापार पूर्वक पारमार्थिक मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है। आदि सर्व पाप योगों का त्याग कर देने से सामायिक करने वाले गृहस्थ के सर्व प्रकार (३) भोगोपभोग परिमाण व्रत-रागादिभावों को मंद करने के लिये परिग्रह पापाश्रव रुककर सातिशय पुण्य का बंध होता है। उस समय वह उपसर्ग में ओढ़े हुए परिमाण व्रत की मर्यादा में भी काल के प्रमाण से भोग-उपभोग का परिमाण करना, कपड़ों से युक्त मुनि के समान होता है। विशेष क्या कहा जाये, अभव्य भी द्रव्य र अधिक सेवन की इच्छा न करना भोगोपभोग परिमाण व्रत है। सामायिक के प्रभाव से नवमे ग्रैवेयक पर्यन्त जाकर अहमिन्द्र हो सकता है। सामायिक जो वस्तु एक बार भोगने के बाद पुन: दूसरी बार भोगने योग्य न हो उसे भोग को भाव पूर्वक धारण करने से शांति सुख की प्राप्ति होती है। यह आत्म तत्व की कहते हैं। जैसे- भोजन, पान, सुगंध आदि। प्राप्ति अर्थात्परमात्मा होने के लिये मूल कारण है, इसकी पूर्णता ही जीव को निष्कर्म जो वस्तु बार-बार भोगने योग्य हो उसे उपभोग कहते हैं। जैसे- स्त्री, आसन, अवस्था प्राप्त कराती है। शय्या, वस्त्र, वाहन, मकान आदि। (२)प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत-अष्टमी, चतुर्दशी के दिन सर्व काल धर्म साधन भोगोपभोग का परिमाण यम-नियम रूप दो प्रकार से होता है। यावज्जीवन की सुवांछा से संपूर्ण पापारंभों से रहित होकर, चार प्रकार आहार का त्याग करना त्याग करना यम कहलाता है और दिन, रात्रि, मास, ऋतु, वर्ष, काल आदि की प्रोषधोपवास कहलाता है। ९ मर्यादा रूप त्याग करना नियम कहलाता है। प्रकृति विरुद्ध अर्थात् जिन चीजों के १. उत्तम प्रोषधोपवास- सोलह प्रहर तक निराहार रहना। २. मध्यम खाने से रागादिक्लेश होता है, उनका सेवन करना छोड़े।अनुपसेव्य, उत्तम जाति, प्रोषधोपवास- जल सिवाय तीन प्रकार के आहार का त्याग । ३. जघन्य कुल,धर्म के विरुद्ध भोगोपभोग का त्याग करे। बुद्धि को विकार करने रूप-बीड़ी, प्रोषधोपवास- एक बार अन्न जल ग्रहण करना। तम्बाकू, भांग, गांजा आदि नशीली वस्तुएं छोड़ें। धर्म, चारित्र को हानि पहुंचाने इस शिक्षाव्रत,व्रत प्रतिमा में द्रव्य,क्षेत्र, काल,भाव के अनुसार अपनीशक्ति वाली विदेशी अज्ञात और अपवित्र औषधि आदि पदार्थों का भक्षण तजे, हिंसा का 9 देखकर उत्कृष्ट, मध्यम या जघन्य जैसा योग्य हो-प्रोषध व्रत करे। व्यापार छोड़े। प्रोषधोपवास के पांच अतिचार-१.बिना देखे बिना शोधे पूजा के उपकरण श्रावक को यह सत्रह नियम नित्य प्रात: काल सामायिक के बाद लेना चाहियेशास्त्र, संस्तर आदि ग्रहण करना। २. बिना देखे बिना शोधे मल-मूत्रादि मोचन भोजने षट्रसे पाने कुमकुमादि विलेपने। करना। ३. बिना देखे बिना शोधे बिस्तर चटाई आदि बिछाना। ४. भूख प्यास के पुष्प ताम्बूल गीतेषु नृत्यादी ब्रह्मचर्यके ॥ . २२९
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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