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________________ 21 04 श्री आपकाचार जी गाथा- ४०५७ जानकर दूसरों पर प्रगट कर देना। तीव्र कषायी, कलह विसंवाद करने वाले पुरुषों से रहित स्थान में रहना। सत्याणुव्रत की पांच भावनायें-१. क्रोध त्याग-क्रोध नहीं करना, मौन २. विमोचितावास-जिस मकान या स्थान में दूसरे का झगड़ा न हो ऐसे किसी के धारण करना। २. लोभ त्याग- जिससे असत्य में प्रवृत्ति होती हो ऐसे लोभ को ५ द्वारा छोड़े गए स्थान में निराकुलता पूर्वक रहना। ३. परोपरोधाकरण- अन्य के छोड़ना। ३. भय त्याग-जिससे धर्म विरुद्ध, लोक विरुद्ध वचन में प्रवृत्ति हो जाये स्थान में बल पूर्वक प्रवेश नहीं करना, किसी को अपने स्थान में आते हुए नहीं ऐसा धन बिगड़ने और शरीर बिगड़ने का भय नहीं करना। ४. हास्य त्याग-किसी रोकना। ४. भैक्ष्यशुद्धि-अन्याय द्वारा प्राप्त किया हुआ तथा अभक्ष्य भोजन का की हंसी-मसखरी नहीं करना, हास्य वचन नहीं कहना । ५. अनुवीचि त्याग करना, अपने कर्मानुसार प्राप्त शुद्ध भोजन को लालसा रहित संतोष सहित भाषण- जिन सूत्र से विरुद्ध वचन न बोलना। इन पांच भावनाओं की सदा स्मृति ग्रहण करना। ५. सधर्माविसंवाद-साधर्मी पुरुषों से कलह, विसंवाद नहीं करना। रखने से असत्य भाषण से रक्षा होती है और सत्याणुव्रत निर्मल होता है। हैं इन पांच भावनाओं को सदा स्मरण रखकर अचौर्याणुव्रत दृढ़ रखना आवश्यक है। (३) अचौर्याणुव्रत-'प्रमत्त योगाददत्तादानं स्तेयम्' कषाय भाव युक्त होकर (४) ब्रह्मचर्याणुव्रत- 'प्रमत्त योगान्मैथुनमब्रह्म' प्रमत्त योग अर्थात् दूसरों की वस्तु उसके दिये बिना या आज्ञा बिनाले लेना चोरी कहलाती है। किसी के वेदकषाय जनित भाव युक्त स्त्री-पुरुषों की रमण क्रिया को कुशील कहते हैं, इस रखे हुए, गिरे हुए, भूले हुए तथा धरोहर रखे हुए द्रव्य का हरण नहीं करना, इस प्रकार कुशील के त्याग को ब्रह्मचर्य व्रत कहते हैं। यथार्थ में ब्रह्मजो आत्मा उसमें ही आत्मा स्थूल चोरी का त्याग करना अचौर्याणुव्रत कहलाता है। एके उपयोग (चैतन्य भाव) की चर्या, रमण करना सच्चा ब्रह्मचर्य है। उस सच्चे संसार में धन ग्यारहवां प्राण है इसलिये जो पराया धन हरण करता है वह ब्रह्मचर्य अर्थात् आत्मा में उपयोग के स्थिर होने में बाधक कारण मुख्यपने स्त्री है; स्वयं पापबंध करके अपने आत्मीक ज्ञान दर्शन प्राणों का घात करता है। चोरी से इस इसलिये जब सम्यकज्ञान पूर्वक स्त्री से विरक्त होकर कोई पुरुष मुनिव्रत धारण करता भव में राजदण्ड,जातिदण्ड मिलता है, निंदा होती है और परभव में नीच गतियों के है तभी आत्म स्वरूप में रमने वाला साधु आत्म स्वरूपका साधक कहलाता है। इसी दु:ख भोगना पड़ते हैं अतएव प्रत्येक ग्रहस्थ को- 'जल मृतिका बिन और नांहि कछुॐ कारण स्त्री सेवन का सर्वथा त्याग करना ब्रह्मचर्य कहा गया है। गहै अदत्ता' इस वाक्य के अनुसार अचौर्य व्रत का पालन करना आवश्यक है। ग्रहस्थ के इतनी अधिक वेदकषाय की मंदतान होने से वह सर्वथा स्त्रीत्याग अचौर्याणवत के पांच अतिचार-(१) चौर प्रयोग-चोरी करने के उपाय करने को असमर्थ है, ऐसी स्थिति में स्वदार संतोष व्रत धारण करना अर्थात् देव, बताना, चोरी करने वालों की सहायता करना (२) चौरार्थादान-चोरी किया हुआ गुरु,शास्त्र एवं पंचों की साक्षी पूर्वक स्व स्त्री के सिवाय और समस्त पर स्त्रियों का पदार्थ ग्रहण करना, मोल लेना (३) विरुद्ध राज्यातिक्रम-राज्य के विरुद्ध कार्य त्याग करना ही ग्रहस्थ का ब्रह्मचर्याणुव्रत है। इस व्रत के विषय में पुरुषों की तरह करना, नियम तोड़ना, कर (टेक्स) की चोरी करना, रिश्वत खोरी, कालाबाजारी स्त्रियों को भी स्वप्न में पर पुरुष की वांछा नहीं करना चाहिये। विधवाओं को ब्रह्मचर्य करना (४) हीनाधिक मानोन्मान- नापने तौलने के गज, बांट, तराजू कम-बढ़ व्रत धारण कर आत्म कल्याण में प्रवर्तन करना चाहिये। रखना (५) प्रतिरूपकव्यवहार-बहुत मूल्य की चीज में अल्पमूल्य की चीज मिलाकर ब्रह्मचर्य अणुव्रत के पांच अतिचार-१.परविवाहकरण- अपने पुत्र-पुत्री बहुत मूल्य के भाव में बेचना, मिलावट करना अपराध है। व्यापार में राज्य का करके सिवाय दूसरों के पुत्र-पुत्री की शादी का मेल मिलाना, शादी कराना। २.इत्वरिका र (टेक्स) न चुकाना, उसमें चोरी करना, लेन-देन में कम बढ़ तौलना, दूध में पानी, परिग्रहीता गमन- व्यभिचारिणी स्त्री जिसका स्वामी हो उसके घर आना-जाना १ घी में तेल डालडा आदि खोटा खरा मिलाकर बेचना, कुछ बताना और कुछ माल देना या उससे बोलने,उठने-बैठने, लेन-देन का व्यवहार करना । ३. इत्वरिका, यह सब चोरी का ही रूपांतर है; अतएव इन पांच अतिचारों को अचौर्याणुव्रत में दोष अपरिग्रहीतागमन-स्वामी रहित व्यभिचारिणी स्त्री के घर आना-जाना,या उससे उत्पन्न करने वाले जानकर त्यागना योग्य है। बोलने, उठने-बैठने, लेन-देन का व्यवहार करना। ४. अनंग क्रीड़ा-काम सेवन । 9 अचौर्याणुव्रत की पांच भावनायें-१. शून्यागारवास- व्यसनी, दुष्ट, के अंगों को छोड़कर अन्य अंगों द्वारा क्रीड़ा करना या अन्य क्रियाओं द्वारा काम की
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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