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________________ ७ श्री आवकाचार जी विशेषार्थ - जो जीव सम्यक्दर्शन से हीन निज शुद्धात्मानुभूति रहित हैं, जिन्हें स्व-पर का यथार्थ भेदज्ञान नहीं हुआ, व्यवहार श्रद्धान से तप करते हैं, व्यवहार संयम पालते हैं, शास्त्र स्वाध्याय पठन-पाठन करते हैं, मुनि या श्रावक का चारित्र पालते हैं ; परंतु अंतरंग में चपल मिथ्या, माया, निदान शल्य सहित, आत्मानुभव से रहित होने से संसार में ही परिभ्रमण करते हैं, बाहरी चारित्र या ज्ञान कोई मोक्ष का कारण नहीं है । वह जीव मंद कषाय से पुण्य कर्म बांध लेगा, देव गति चला जायेगा वहां विषयों में लीन हो जायेगा, वहां से चयकर दूसरे स्वर्ग तक का देव, एकेन्द्रिय स्थावर व बारहवें स्वर्ग तक का देव पशु और आगे का मनुष्य होकर अन्य - अन्य गतियों में जा-जाकर कष्ट ही भोगेगा। जन्म जरा मरण से रहित नहीं हो सकता, जैसे- तालाब के जल के कीटाणु वहीं बिलबिलाते घूमते रहते हैं, इसी प्रकार सम्यक्दर्शन से हीन जीव संसार में ही परिभ्रमण करते हैं। आगे सम्यक्दर्शन की महिमा बताते हैं दर्सनं स्थिरं जेन, न्यानं चरनं च स्थिरं । संसारे तिक्त मोहंधं, मुक्ति स्थिरं सदा भवेत् ॥ ४०३ ॥ अन्वयार्थ - (दर्सनं स्थिरं जेन) जो सम्यक्दर्शन में भले प्रकार स्थिर है (न्यानं चरनं च स्थिरं ) जिसका ज्ञान और चारित्र भले प्रकार स्थिर है (संसारे तिक्त मोहंधं) जिसने संसार के मोह और अज्ञान अंधकार को छोड़ दिया है (मुक्ति स्थिरं सदा भवेत्) वह हमेशा मुक्ति में स्थिर रहेगा। विशेषार्थ - मोक्ष का साधन निश्चय रत्नत्रयमयी आत्मा का अनुभव है। जिसके शुद्धात्मा की रुचि दृढ़ है उसका ज्ञान और उसमें थिरता दृढ़ है वह अवश्य मोक्षमार्गी है। जो सम्यक्दर्शन में स्थिर है, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में स्थिर है, जिसने संसार के अज्ञान अंधकार मोहादि को छोड़ दिया है वह मोक्षमार्गी है और हमेशा मोक्ष में स्थिर रहेगा अर्थात् सिद्ध परमात्मा होगा। शुद्ध सम्यकदृष्टि ही मोक्षमार्गी है SYARAT GAAN FAN ART YEAR. एतत् दर्सनं दिस्टा, न्यानं चरन सुद्धए । उत्कृष्टं व्रतं सुद्धं मोष्यगामी न संसय: ।। ४०४ ॥ अन्वयार्थ - (एतत् दर्सनं दिस्टा) इस तरह जो अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखता है (न्यानं चरन सुद्धए) ज्ञान और चारित्र से शुद्ध होता है (उत्कृष्टं व्रतं सुद्धं ) 236 २२१ गाथा ४०३, ४०४ उसके व्रत उत्कृष्ट और शुद्ध होते हैं (मोष्यगामी न संसय:) ऐसा दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक मोक्षगामी है इसमें कोई संशय नहीं है। विशेषार्थ इस तरह दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखता है, ज्ञान और चारित्र से शुद्ध होता है। सप्त व्यसन का त्यागी, अष्ट मूलगुणों का पालन करने वाला, पच्चीस दोषों से रहित शुद्ध सम्यक्दर्शन का धारी होता है। जिसके मिथ्यात्व, अन्याय, अभक्ष्य का सर्वथा अभाव होकर धर्म की निकटता अर्थात् व्रत धारण करने की शक्ति और पात्रता होती है वह दर्शन प्रतिमाधारी आगे की प्रतिमाओं का पालन करता हुआ साधु पद में उत्कृष्ट महाव्रतों को पालता है, वह अवश्य ही मोक्षगामी है इसमें कोई संशय नहीं है । दर्शन प्रतिमाधारी साधक की नित्य चर्या १. एक घण्टा रात्रि शेष रहे तब उठकर पवित्र हो आत्म चिंतन सामायिक करे । २. प्रात: स्नान आदि दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर चैत्यालय जावे, शुद्ध षट्कर्मों में यथाशक्ति प्रवर्ते । ३. धर्म कार्यों से निवृत्त होने के पश्चात शुद्ध भोजन करे। ४. भोजन की पवित्रता रखे, शूद्र को छोड़कर शेष तीन वर्णों के (जिसका मद्य मांस का त्याग हो) हाथ से भरा ठीक प्रकार दोहरे छन्ने से छना हुआ पानी, मर्यादित आटा, चर्म स्पर्श रहित शुद्ध घी, ताजा छना और प्रासुक किया हुआ दूध, ताजा मसाला, रसोई में चंदोवा, बिना बींधा दाल चावल आदि अन्न ग्रहण करे, कन्द मूल आदि अभक्ष्य पदार्थों का त्याग करे । ५. चार बजे तक आजीविका संबंधी कार्य अपनी योग्यतानुसार विवेक पूर्वक करे पश्चात् दुबारा भोजन करना हो तो करे। संध्या समय पुनः आत्म चिंतन सामायिक करे पश्चात् शास्त्र सभा में जाकर शास्त्र पढ़े या सुने, समय बचे तो स्वाध्याय करे। रात्रि दस बजे विश्राम करे, इस प्रकार आहार-विहार शयन आदि तथा धर्म कार्यों को नियम पूर्वक करता रहे। दर्शन प्रतिमा में अन्याय, अभक्ष्य जनित स्थूल हिंसा के कारणों को सर्वथा त्यागकर आरंभ संबंधी मोटे-मोटे हिंसादि पापों के त्याग का क्रम रहित अभ्यास करता हुआ दार्शनिक श्रावक व्रत धारण करने की भावना भाता है। २. व्रत प्रतिमा व्रत प्रतिमा का स्वरूप कहते हैं
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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