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________________ 2010 2 4 श्री श्रावकाचार जी गाथा-३९२-३९५ OOO दर्सनं तत्व सार्थच, तत्व नित्य प्रकासकं । भी मल नहीं रहेगा। सम्यकदृष्टि सदा ही मूढता से बचता है. किसी भी प्रकार का अभिमान नहीं करता, परम दृढ़ता से शुद्धात्मा की भावना भाता है। धर्मात्माओं से न्यानं तत्वानि वेदंते, दर्सनं तत्व सार्धयं ॥ ३९४ ॥ प्रेम रखता है, धर्म की वृद्धि का यथाशक्ति उपाय करता है। उसके भीतर कोई दोष 2 संमिक दर्सनं सुद्ध, उर्वकारं च विंदते। ॐ प्रवेश नहीं कर सकते। संसार की जितनी पर संयोग जनित अवस्थायें हैं उनको G धर्म ध्यानं च उत्पा/ते,हियंकारेण दिस्टते ॥ ३९५॥ 1. नाशवान जानता रहता है ; इसीलिये उनमें राग-द्वेष, मोह नहीं करता। वह जानता उवंकारं हृींकारं च, श्रींकारं प्रति पूर्नयं। है कि शरीर, धन, यौवन, बल, विद्या, कुटुम्ब, सेवकों का समागम तथा यह जीवन ८ आदि समस्त संयोग जल के बुदबुदवत् क्षणभंगुर नाशवान हैं। देखते ही देखते नष्ट ध्यायति सुख ध्यानस्य, अनुव्रतं साधुवं ।। ३९६ ॥ , होजाते हैं : इस कारण इन क्षणिक पदार्थों से सदाही उदासीन रहता है। सम्यकदृष्टि अन्वयार्थ- (दर्सनं जस्य हृदयं साध) जिसके हृदय में दर्शन, निजS किसी भी परिस्थिति में हो सदा समता भाव में रहता है, बाह्य में छह खंड का राज्य शद्धात्मानुभूति का श्रद्धान होता है (दोषं तस्य न पस्यते) वहां कोई दोष दिखाई नहीं करता चक्रवर्ती दिखलाई पड़ता है; परंतु अंतरंग में मात्र अपने ही आत्मीक राज्य को देते (विनासं सकल जानते) वह जगत के समस्त पदार्थों को विनाशीक जानता है संभालता है। परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है, मैं ध्रुव तत्व सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा हूं (स्वप्नं तस्य न दिस्यते) उसे स्वप्न में भी नाशवान पदार्थों का राग पैदा नहीं होता। ऐसी दढ भावना सम्यक्त्वी के अंतरंग में होती है। जैसे कोई ज्ञानवान विवेकशील (संमिक दर्सनंसुद्ध)जहां शुद्ध सम्यक्दर्शन होता है (मिथ्या कुन्यान विलीयते) गृहस्थ दूसरे की वस्तु को कभी भी अपनी नहीं मानता, उसी तरह सम्यक्त्वीशरीरादि वहां मिथ्या कुज्ञान का विलय हो जाता है (सुद्ध समयं च उत्पादंते) शुद्धात्म स्वरूप पर वस्तुओं को कभी भी अपनी नहीं मानता, कभी स्वप्न में भी उनका विचार नहीं प्रगट हो जाता है (रजनी उदय भास्कर) जैसे रात्रि के बाद सूर्य का उदय होता है। करता । शद्ध सम्यकदर्शन के प्रकाश के सामने मिथ्याज्ञान उसी तरह नहीं ठहर (दर्सनं तत्व साधं च) तत्वों का श्रद्धान करना सम्यकदर्शन है (तत्व नित्य सकता, जैसे- सूर्य के उदय होने से रात्रि नहीं ठहर सकती है। सम्यक्त्वी के अंतर में प्रकासक) अविनाशी शुद्ध तत्व का प्रकाश करने वाला है (न्यानं तत्वानि वेदंते), कुमति. कुश्रुत.कुअवधि ज्ञान कभी नहीं होते। तत्वों का अनुभव करना जानना ही ज्ञान है (दर्सनं तत्व सार्धयं) दर्शन द्वारा तत्व की सम्यक्दर्शन के होते ही स्वरूपाचरण चारित्र का उदय होजाता है तथा शुद्धात्मा साधना करना ही चारित्र है। 5 का अनुभव प्रगट हो जाता है। आत्मज्ञान रूपी सूर्य के प्रकाश में फिर संसार का (संमिक दर्सनं सुद्ध) जब शुद्ध सम्यक्दर्शन निश्चय निज शुद्धात्मानुभूति हो मोहतम अज्ञान कैसे रह सकता है? ज्ञानी हमेशा शरीरादि से भिन्न अपने चैतन्य जाती है तब ही (उर्वकारं च विंदते) परमात्म स्वरूप का अनुभव होता है (धर्म ध्यानं स्वरूप का विचार रखता है। जैसे- किसान धान के ढेर में चावल और भूसी को च उत्पाद्यंते) और धर्म ध्यान भी प्रगट हो जाता है (हियंकारेण दिस्टते) जिससे अलग देखता है, तेली तिलों के ढेर में तेल और खली को भिन्न देखता है,स्वर्णकार केवलज्ञान स्वरूप में ठहरने लगता है। सोने और किट्टिका को भिन्न देखता है, धोबी वस्त्र में वस्त्र और मैल को अलग (उर्वकारहींकारंच) पंच परमेष्ठी मयी सिद्ध स्वरूप और केवलज्ञामयी परमात्म देखता है, वैसे ही सम्यक्दृष्टि दर्शन प्रतिमाधारी आत्मा से अनात्मा को भिन्न देखता स्वरूप (श्रींकारं प्रति पूर्नयं) पूर्ण शुद्ध मोक्ष लक्ष्मी स्वरूप निज शुद्धात्म तत्व के है। यद्यपि व्यवहारनय से जीव आदि सात तत्वों का श्रद्धान करना सम्यक्दर्शन है , प्रति पूर्ण श्रद्धान होता है (ध्यायंति सुद्ध ध्यानस्य) तब शुद्ध ध्यान के द्वारा ध्याया परंतु निश्चय नय से शुद्धात्मा का श्रद्धान करना सम्यक्दर्शन है। शुद्धात्म तत्व का जाता है (अनुव्रतं साधंधुव) जिससे अणुव्रतों की निश्चय साधना होती है। वेदन करना सम्यज्ञान है। शुद्धात्म स्वरूप में स्थिर रहना ही सम्यक्चारित्र है। विशेषार्थ-जहां शुद्धता होगी वहां मैल नहीं और जहां मैल होगा वहां शुद्धता जब तक शुद्धात्मा में स्थिरता न हो तब तक मुक्त नहीं हो सकते । मिथ्यात्व के 7 नहीं, इसी प्रकार जिसके हृदय में शुद्ध सम्यक्दर्शन है वहां पच्चीस मलों में से कोई उपशम से शुद्ध स्वरूपकी सच्ची रुचि होती है और अनंतानुबंधी कषाय के उपशम २१८
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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