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________________ ७०७० CACANCY ७० श्री आवकाचार जी अमित गति श्रावकाचार में दिवा मैथुन त्याग है। श्री तारण स्वामी ने छटवीं प्रतिमाधारी को अपनी आत्मा में विशेष अनुराग भक्ति होने से इसका नाम अनुराग भक्ति रखा, यह उनकी अपनी अनुभूतियुत बात है, इसी के बाद ब्रह्मचर्य प्रतिमा होती है। अन्य आचार्यों का व्यवहारिक दृष्टिकोण है; जबकि श्री तारण स्वामी ने शुद्ध अध्यात्म के आधार से निश्चय नय प्रधान प्रतिमाओं का स्वरूप वर्णन किया है जो यथार्थ में अनुभव प्रमाण है। वर्तमान में प्रतिमाओं और साधु पद की दीक्षा ली और दी जाती है, वे व्यवहार प्रधान क्रियाओं में ही संलग्न रहते हैं जबकि यह अंतरंग जागरण होने पर स्वयमेव स्थिति बनती है वही यथार्थ सत्य है। जैसे- खेत में बोये गये बीज में स्वयं अंकुरण, पत्ती, फूल, फल लगते हैं वही यथार्थ होते हैं और जो कागज या नाईलोन के बनाकर लगाये जाते हैं वह देखने मात्र के हैं, इसी प्रकार प्रतिमाओं का आचरण मात्र औपचारिक नहीं है बल्कि आत्मानुभूति पूर्वक होने वाला आचरण ही यथार्थ होता है, धर्म मार्ग में यही प्रतिमाओं का स्वरूप है। आगे पांच अणुव्रतों के नाम जिनकी शुद्धि द्वारा आत्म स्वरूप में रमणता होती है, उनका वर्णन करते हैं अहिंसा नृतं जेन, स्तेयं बंभ परिग्रहं । सुद्ध तत्व हृदयं चिंते, सार्धं न्यान मयं धुवं ॥ ३८१ ॥ rochem.nc svaseiwyoo अन्वयार्थ - (अहिंसा नृतं जेन) जो अहिंसा, सत्य (स्तेयं बंभ परिग्रहं) अचौर्य, बह्मचर्य, परिग्रह त्याग कहे गये हैं (सुद्ध तत्व हृदयं चिंते) इससे हृदय में शुद्ध तत्व का चिंतवन और (सार्धं न्यान मयं धुवं) ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की साधना होती है। विशेषार्थ - अव्रत सम्यक्दृष्टि, जिसकी आत्म कल्याण की भावना प्रबल हो गई, बाह्य में कर्मों की अनुकूलता, कषाय की मंदता, प्रत्याख्यान कषाय होने से पापों के त्याग रूप अणुव्रत और विषयों से हटने के लिये प्रतिज्ञा (प्रतिमा) धारण करता है, जिससे उसके हृदय में हमेशा अपने शुद्धात्म तत्व का चिंतवन चलता है। ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव का लक्ष्य और साधना चलती है, अभी तक कर्मोदयजन्य पापादि विषयों 5 में लगे रहने से अपने आत्म स्वरूप की सुरत भी नहीं रहती थी, निज शुद्धात्मानुभूति होने से यह सब रुचिकर नहीं लगते थे परंतु कर्मों की बलवत्ता जोर होने से उस दशा में रहता है। अब पुरुषार्थ जागा, संयम की भावना जागी और एकदेश पापों का त्यागकर प्रतिमाओं के माध्यम से आगे बढ़ने का पुरुषार्थ करता है। अपने ज्ञानमयी २१४ गाथा ३८१, ३८२ ध्रुव स्वभाव की साधना और हृदय में उसी का चिंतवन करता है जिससे पापादि विषयों के भाव अपने आप क्षय होने लगते हैं। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग व्रतों का पालन होने लगता है। प्रतिमाओं के माध्यम से अणु रूप पालन होता हुआ जब पूर्ण शुद्धि हो जाती है तब महाव्रत साधु पद हो जाता है। इसी लक्ष्य और भावना को लेकर सम्यक्दृष्टि इन प्रतिमाओं के माध्यम से आगे बढ़ता है जिससे अपने आत्म स्वरूप में निरंतर निमग्न रहे । १. दर्शन प्रतिमा पहली दर्शन प्रतिमा का स्वरूप वर्णन करते हैं प्रतिमा उत्पादते जेन, दर्सनं सुद्ध दर्सनं । उवंकारं च वेदंते, मल पच्चीस विमुक्तयं ॥ ३८२ ॥ अन्वयार्थ (प्रतिमा उत्पादंते जेन) यहां प्रतिमा के स्वरूप को प्रगट करते हैं (दर्सनं सुद्ध दर्सनं) शुद्ध सम्यक्दर्शन होना ही दर्शन प्रतिमा है (उवंकारं च वेदंते) जिसे परमात्म स्वरूप का अनुभव हो गया (मल पच्चीस विमुक्तयं) जो पच्चीस मलों से विमुक्त है। विशेषार्थ श्रावक की पहली दर्शन प्रतिमा का स्वरूप कहते हैं- निज शुद्धात्मानुभूति पूर्वक अपने परमात्म स्वरूप का दर्शन होना ही दर्शन प्रतिमा है। जो ८ शंका दि दोष, ८ मद, ६ अनायतन, ३ मूढ़ता इन पच्चीस दोषों से रहित शुद्ध सम्यक्दृष्टि है वही दर्शन प्रतिमाधारी है। सम्यक्दर्शन धर्म का मूल है। अपने शुद्धात्म स्वरूप का सच्चा श्रद्धान ही धर्म या सम्यक्दर्शन है और प्रतिमा अर्थात् मूर्ति, जो धर्म या सम्यक्त्व की मूर्ति हो, जिसके बाह्य आचरणों से ही ज्ञात हो कि यह पवित्र जिन धर्म का श्रद्धानी है वह दर्शन प्रतिमाधारी है। जिसके जीवन में अन्याय, अभक्ष्य, अनीति का नियम पूर्वक त्याग है ; क्योंकि जो विकार तीव्र कषाय रूप महापाप के कारण हैं एवं अत्यन्त अनर्थ रूप हैं, ऐसा जानकर हर्ष पूर्वक त्यागता है। इस भांति से त्याग करने वाला ही व्रतादि प्रतिमा धारण करने का पात्र या अधिकारी होता है। 2 जिसने अव्रत सम्यदृष्टि सम्बन्धी आचार आदि का पालन करके सम्यक्दर्शन को शुद्ध कर लिया है, जो संसार शरीर और भोगों से चित्त में विरक्त है, मूलगुणों के आचार दोषों का सर्वथा अभाव करके आगे की प्रतिमाओं को धारण करने का इच्छुक तथा न्याय पूर्वक आजीविका करने वाला है, जो पच्चीस मलों से विमुक्त है वह दर्शन
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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