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________________ ७ श्री आवकाचार जी पूर्वक वस्तु स्वरूप का ज्ञान हो गया है वह अव्रती होता हुआ भी मोक्षमार्गी है और अपने समय पर भविष्य में मुक्त होगा इसमें कोई संशय नहीं है इस प्रकार अव्रती सम्यकदृष्टि जघन्य पात्र के स्वरूप का वर्णन पूर्ण करते हैंएतत् भावनं कृत्वा, श्रावगं संमिक दिस्टितं । अविरतं सुद्ध दिस्टी च, सार्धं न्यान मयं धुवं ॥ ३७७ ॥ अन्वयार्थ- (एतत् भावनं कृत्वा) इस प्रकार की भावना करने वाला (श्रावगं संमिक दिस्टितं) श्रावक सम्यक्दृष्टि होता है (अविरतं सुद्ध दिस्टी च) वह अविरत शुद्धदृष्टि है जो (सार्धं न्यान मयं धुवं ) अपने ज्ञानमयी ध्रुवस्वभाव की श्रद्धा और साधना करता है। SYA YAA AAN YES AT Y विशेषार्थ इस प्रकार सात व्यसन, विकथा आदि का त्याग करता हुआ, जो सम्यक्त्व, अष्ट मूल गुण, चार दान, तीन रत्नत्रय, रात्रि भोजन त्याग, पानी छानकर पीना इन अठारह क्रियाओं का पालन करता हुआ शुद्ध षट्कर्मों का पालन करता है वह सम्यक्दृष्टि श्रावक है। अभी अव्रती दशा में संसार घर ग्रहस्थी में फंसा है परंतु जिसे अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव का श्रद्धान है और उसी की साधना करता है तथा उसी का उत्साह है, आत्म कल्याण आत्मोन्नति की भावना उसकी वेगवती चलती है। अभी अप्रत्याख्यानावरण कषाय की विशेषता से अव्रती है, जैसे ही अप्रत्याख्यान कषाय का उपशम, क्षयोपशम हुआ प्रत्ख्यानावरण का सद्भाव आया, वह पांचवां गुणस्थानवर्ती व्रती श्रावक हो जाता है। ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करने लगता है। चारित्र का बहुमान और आत्म कल्याण की भावना तीव्र होने से उसके परिणाम निर्मल, विवेकपूर्ण, धर्मयुक्त, न्यायमार्गी, दया और धर्म से गर्भित होते हैं। व्रती न होने पर भी व्रती के समान आचरण करता है। धर्म ध्यान का प्रारंभ चौथे गुणस्थान से हो जाता है, वह सदा संसार शरीर भोगों से वैराग्य युक्त होकर आत्मा के शुद्ध स्वरूप की भावना और साधना करता है। जगत के सुख-दुःख की प्राप्ति में नाटक के दृष्टा के समान न उन्मत्त होता है, न विषाद करता है, अंतर में समता भाव का प्रेमी है। 5 यह स्थिति उसकी पात्रता बढ़ाती है और वह व्रती श्रावक हो जाता है। श्रावक धर्म, ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप - आचार्य पदवीधारी व्रती श्रावक मध्यम पात्र की ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप वर्णन करते हैं २१२ गाया- ३७७, ३७८ श्रावग धर्म उत्पादंते, आचरनं उत्कृष्टं सदा । प्रतिमा एकादसं प्रोक्तं, पंच अनुव्रत सुद्धये ।। ३७८ ।। अन्वयार्थ- (श्रावग धर्म उत्पादंते) श्रावक धर्म प्रगट होता है (आचरनं उत्कृष्टं सदा) जिसका आचरण हमेशा उत्कृष्ट होता जाता है ( प्रतिमा एकादसं प्रोक्तं ) इसके लिये ग्यारह प्रतिमायें कही गई हैं (पंच अनुव्रत सुद्धये) जिससे पंच अणुव्रत शुद्ध होते हैं। विशेषार्थ- यद्यपि प्रथमानुयोग के ग्रंथों में सामान्य रीति से छोटी-छोटी प्रतिज्ञा लेने वाले जैनी ग्रहस्थ को भी कई जगह श्रावक कहा है तथापि चरणानुयोग की पद्धति से यथार्थ में पाक्षिक, नैष्ठिक तथा साधक तीनों की ही श्रावक संज्ञा है क्योंकि श्रावक को अष्ट मूलगुण धारण और सप्त व्यसनों का त्याग ही मुख्य रूप से होता है तथा अहिंसा आदि बारह व्रत उत्तरगुण हैं, इन्हीं के अंतर्गत श्रावक की त्रेपन क्रियायें होती हैं। इन क्रियाओं को धारण एवं पालन करने के कारण ही श्रावकों को त्रेपन क्रिया प्रतिपालक विशेषण दिया जाता है। इन क्रियाओं की शुद्धि क्रमश: प्रथम आदि प्रतिमाओं में होती हुई पूर्णता ग्यारहवीं प्रतिमा में होती है। पाक्षिक श्रावक जिनको जैन धर्म के देव, गुरू, शास्त्रों द्वारा आत्मा का स्वरूप तथा आत्म कल्याण का मार्ग भली भांति ज्ञात और निश्चित हो जाने से पवित्र जिन धर्म का, श्रावक धर्म का तथा अहिंसा आदि का पक्ष हो जाता है, जिनके मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ भावनायें दिन-प्रतिदिन वृद्धि रूप होती जाती हैं, जो स्थूल - त्रस हिंसा के त्यागी हैं, ऐसे चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यकदृष्टि पाक्षिक श्रावक कहलाते हैं। जो कैसी ही विपत्ति आने पर भी सच्चे देव, गुरू, शास्त्र, पंचपरमेष्ठी के अतिरिक्त किसी देवी देवता, कुदेव, अदेव आदि की पूजा वंदना भक्ति नहीं करते। वे इन सत्रह नियमों का पालन करते हैं कुगुरु कुदेव कुवृष की सेवा, अनर्थदण्ड अधमय व्यापार । द्यूत मांस मधु वेश्या चोरी, परतिय हिंसा दान शिकार ॥ स की हिंसा थूल असत्यरू, बिन छान्यो जल निशिआहार । यह सत्रह अनर्थ जग मांहीं, यावज्जिओ करो परिहार ॥ कुगुरु, कुदेव, कुधर्म की सेवा, अनर्थ दण्ड, हिंसा पाप मय व्यापार, जुआं, G 5656
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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