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________________ 04 श्री श्रावकाचार जी गाथा-३६३,३६४ POOO ३. ऐषणा समिति-वीरचर्या द्वारा, श्रावकों के द्वारा भक्ति पूर्वक दिये गये परिवर्तन होता जाता है, चौथा गुणस्थान होते ही अनन्तानुबंधी कषाय चली जाती निर्दोष आहार को योग्य समय पर उचित मात्रा में विधि पूर्वक ग्रहण करना ऐषणा है। एकदेश संयम अणुव्रती पंचम गुणस्थान होने पर अप्रत्याख्यान कषाय चली समिति है। अपने आत्म स्वभाव को भक्ति बहुमान पूर्वक ग्रहण करना ऐषणा . जाती है। सकल संयम महाव्रत साधुपद छठा गुणस्थान होने पर प्रत्याख्यान कषाय समिति है। * चली जाती है, स्वरूप की स्थिरता से संज्वलन कषाय भी मंद होती जाती है। जिससे ७ ४. आदान निक्षेपण समिति-अच्छी तरह से देखभाल कर पुस्तक आदि सातवेंगुणस्थान में श्रेणी माड़कर क्षपक श्रेणी से यथाख्यात चारित्र होते ही अरिहन्त को उठाना और रखना आदान निक्षेपण समिति है। अपने आत्मा को विभावों से सर्वज्ञ पद प्रगट हो जाता है। केवलज्ञानी परमात्मा अपने शुद्ध स्वभाव मय हो जाते बचाकर स्वभाव में स्वच्छ पवित्र रखना आदान निक्षेपण समिति है। ६ हैं। यह सम्यक्चारित्र की ही विशेषता श्रेष्ठता है। ५. प्रतिष्ठापन या उत्सर्ग समिति-जीव-जंतु रहित एकान्त स्थान को । सम्यकचारित्र का स्पष्ट प्रत्यक्षपना वीतरागी निर्ग्रन्थ साधु होने पर ही होता देख भालकर मल मूत्रादि त्यागना उत्सर्ग समिति है। राग-द्वेषादि मलों से बचकर है। जहाँ रत्नत्रय की शुद्धि पूर्वक स्वरूपाचरण का पुरुषार्थ जागा और स्वरूप में अपने शुद्ध स्वभाव में रहना, उत्सर्ग समिति है। लीनता हुई कि आत्मा का प्रत्यक्षपना सर्वज्ञ स्वरूप प्रगट हो जाता है। बुद्धिमान इस प्रकार सम्यज्ञान के प्रकाश में निश्चय-व्यवहार के समन्वय पूर्वक इन साधक पात्र जीव इस सम्यक्चारित्र की श्रेष्ठता,तीन गुप्तियों का पालन करता हुआ, समितियों का पालन होता है, तभी साधक देवपूजा का अधिकारी होता है। अपने सर्वज्ञ स्वभावी देवत्व पद को पाता है और आत्मा से शुद्ध परमात्मा हो जाता है। आगे सम्यक्चारित्र की श्रेष्ठता, तीन गुप्तियों का पालन होना बताते हैं गुप्ति के तीन भेद हैं-१.मनगुप्ति, २.वचनगुप्ति, ३.कायगुप्ति। श्रियं संमिक चारित्रं, संमिक उत्पन्न सास्वतं । गुति-लोगों के द्वारा की जाने वाली पूजा, लाभ और ख्याति की इच्छा न अप्पा परमप्पयं सुद्ध, श्रियं संमिक चरनं भवेत् ।। ३६३॥ S करने वाले साधु को सम्यक्दर्शन आदि रत्नत्रय स्वरूप अपनी आत्मा को मिथ्यादर्शन आदि से रक्षा करने के लिये सावद्य योगों का निग्रह करना चाहिये। श्रियं सर्वन्य साधं च, स्वरूपं विक्त रूपयं। 8 जिससे संसार के कारणों से आत्मा की रक्षा होती है उसे गुप्ति कहते हैं। मन श्रियं संमिक्त धुर्व सुख,श्री संमिक चरनं बुध ।। ३६४॥ वचन काय से उत्पन्न अनेक पाप सहित प्रवृत्तियों का प्रतिषेध करने वाली अथवा अन्वयार्थ- (श्रियं संमिक चारित्रं) श्रेष्ठ सम्यक्चारित्र (संमिक उत्पन्न सास्वतं) तीनों योगों की रोधक तीन गुप्तियाँ मानी गई हैं। (धर्मामृत अनगार) सम्यक्दर्शन सहित पैदा होता है जो अविनाशी होता है, जिससे (अप्पा परमप्पयं १. मन गुप्ति- राग-द्वेष और मोह के त्याग रूप अथवा आगम का विनय सुद्ध) आत्मा परमात्मा के समान शुद्ध हो जाता है (श्रियं संमिक चरनं भवेत) यही पूर्वक अभ्यास और धर्म तथा शुक्ल ध्यान रूप मनोगुप्ति है। मन की रागादि से श्रेष्ठ सम्यक्चारित्र की विशेषता होती है। निवृत्ति को मनोगुप्ति कहते हैं। मन, इन्द्रियों के द्वारा रूपादि विषयों को ग्रहण करता (श्रियं सर्वन्य साधूच) अपने श्रेष्ठ सर्वज्ञ स्वरूप की साधना करो और (स्वरूपं है तो आत्मा में राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं। यहाँ मन शब्द से नो इन्द्रिय मति ली गई है, विक्त रूपयं) अपने स्वरूप को प्रत्यक्ष प्रगट करो (श्रियं संमिक्त धुवं सुद्ध) यह वह आत्मा में रागादि परिणामों के साथ एक काल में होती है क्योंकि विषयों के अवग्रह ९ श्रेष्ठ सम्यक्त्व ही निश्चय से शद्ध होने पर (श्री संमिक चरनं बध) हे ज्ञानीजनो! आदि ज्ञान के बिना राग-द्वेष में प्रवृत्ति नहीं होती; किन्तु वस्तु तत्व के अनुरूप , यही श्री सम्यक्चारित्र है, जो मुक्ति श्री का वरण कराता है, जिसके होने पर तीन मानस ज्ञान के साथ राग-द्वेष नहीं रहते अत: तत्व को जानने वाले मन का रागादि गुप्तियाँ- मनगुप्ति,वचनगुप्ति,कायगुप्ति स्वयमेव हो जाती है। के साथ नहीं होना ही मनोगुप्ति है। यहाँ मन का ग्रहण ज्ञान का उपलक्षण है अत: । विशेषार्थ-सम्यक्दर्शन के उत्पन्न होते ही जो स्वरूपाचरण चारित्र होता है. राग-द्वेष के कलंक से रहित सभी ज्ञान मनोगुप्ति हैं, यदि ऐसा न माना जायेगा तो । वही सम्यक्चारित्र है। जैसा-जैसा स्वरूपाचरण चारित्र बढ़ता है. वैसा ही कषायों का इन्द्रिय जन्य मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान अथवा मन: पर्ययज्ञान रूप परिणत २०६
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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