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________________ oक श्री श्रावकाचार जी है, देवत्व पद पाना ही पूजा का प्रयोजन है, इसके लिये जैनदर्शन में पाँच परम इष्ट उसका समाधान करते हैं कि जो रत्नत्रय का साधन करे उसको साधु कहते हैं, पद बताये गये हैं, जिनके माध्यम से प्रत्येक भव्य जीव, आत्मा से परमात्मा बन इसमें मुख्यता सम्यकदर्शन सहित सम्यकज्ञान सम्यकचारित्र की है। पाँच महाव्रत, सकता है, इसका प्रारंभ संसारी जीव की अपेक्षा साधुपद से उपाध्याय, आचार्य पद र पाँच समिति तथा तीन गुप्ति रूप तेरह प्रकार या अट्ठाईस मूलगुण रूप चारित्र साधु से अरिहंत सर्वज्ञ परमात्मा होते हुए परिपूर्ण शुद्ध सिद्ध परमात्मा होते हैं,जोशाश्वत जन भले भाव से पालते हैं किन्तु यदि कोई साधु मात्र व्यवहार रत्नत्रय पाले और पद है। निश्चय रत्नत्रयमयी शुद्धात्मानुभव न पावे तो वह साधु पूज्य नहीं है, वह मात्र इस साधना में सोलह कारण भावना से अरिहंत तीर्थंकर पद मिलता है और द्रव्यलिंगी साधु मिथ्यादृष्टि है। भावलिंग सहित ही द्रव्यलिंग की शोभा है। भावलिंग आठों कर्मों का क्षय होने पर आत्मा के पूर्णशुद्ध गुण प्रगट होते हैं, जो सिद्ध परमात्मा ६ बिना द्रव्यलिंग केवल पुण्य बंध का कारण है, मोक्ष का कारण नहीं है, अत: रत्नत्रय के शाश्वत गुण हैं, जिनके प्रगट होने पर सिद्ध पद होता है, इनका आराधन करना ही। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ही देवत्व पद, मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र सिद्ध पद पाने की विधि है। धर्म का आचरण करने, कराने वाले आचार्य और उपाध्याय कारण है। जिसमें यह तीन गुण सम्पूर्ण होते हैं, उसके अट्ठाईस मूलगुण तेरहविधि होते हैं,जो दश धर्मों का पालन करते और कराते हैं। जिससे आत्मा परम पवित्र होता चारित्र तो स्वयं ही पलता है क्योंकि यह सब बाह्य क्रियायें हैं, जो शरीरादि मन के है। इसका पूर्व में वर्णन किया गया है। यहाँ साधु के तीन गुण रत्नत्रय के स्वरूप का द्वारा की जाती हैं, इनसे आत्मा का भला नहीं होता क्योंकिविवेचन किया जा रहा है, जिससे साधुपद होता है। इन गुणों को इष्ट उपादेय मानकर मुनिव्रत धार अनन्त बार ग्रीवक उपजायो। इनकी साधना-आराधना करने से यह पद स्वयं में प्रगट होते जाते हैं,यही सच्ची पै निज आतम ज्ञान बिना सुख लेशन पायो॥ देवपूजा की विधि है क्योंकि पूज्य के समान आचरण करके स्वयं पूज्य बन जाना हीर इसलिये क्रोध करना, मान, माया,लोभ के वश रहना, राग-द्वेष रूप परिणाम सच्ची पूजा है। S करना, इच्छाओं के आधीन होकर सांसारिक विषयों में, पापों में प्रवृत्ति करना,सच्चे यहाँ साधक और साधुजो सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान से संयुक्त होते हैं अर्थात् 8 साधु का स्वभाव नहीं हो सकता। क्षमा, दया, धैर्य, अन्तरंग की शुद्धि, प्रलोभनों का जोसम्यकदृष्टि सम्यकज्ञानी होते हैं और जो सम्यक्त्वाचरण चारित्र का पालन करते अभाव,तिल तुष मात्र परिग्रह से रहित,परमज्ञानीभेदविज्ञान के मर्मज्ञ ही सच्चे साधु हैं, उनको अवधिज्ञान का उदय हो जाता है जिससे उन्हें अपने तथा पर के पूर्व भवों हो सकते हैं। का ज्ञान हो जाता है और वह जान लेते हैं कि इस जीव ने चारों गतियों में कैसे-कैसे चारों गतियों के जन्म-मरण का दुःख सम्यक्दर्शन की प्राप्ति के बिना दूर नहीं दुःख भोगे हैं। कैसे कर्मों का बंध किया और भोगा है। अब वह ज्ञानी निरन्तर अपने हो सकता। यह सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्र ही सांसारिक दुःखों से छुड़ाकर मोक्षरूपी आत्म स्वरूप को ही देखते हैं । सम्यक्दर्शन का हमेशा आराधन करते हैं,सिद्ध सुख दे सकता है। समान अपने शुद्धात्मा को देखते हैं, सम्यक्ज्ञान में केवलज्ञानमयी सर्वज्ञ स्वरूप आत्मिक दृढ़ आस्था के बिना कोई भी व्यक्ति निर्भय नहीं हो सकता, को जानते हैं और सम्यकचारित्र में अपने ध्रुव स्वभाव में लीन रहते हैं। इस प्रकार जैसे-वीरता बिनासैनिक, नाक के बिना सुन्दर मुख, मुद्रिका के बिना अंगुली,सुन्दर रत्नत्रय की साधना-आराधना में रत रहना अर्थात् अपने शुद्धात्मा का श्रद्धान अनुभूति अंगुलियों के बिना हाथ, तेल बिना दीपक, अपना काम सुचारू रूप से नहीं कर र करना,शुद्धात्मा का ज्ञान करना और शुद्धात्मा में लीन रहना ही साधु के सच्चे सम्पूर्ण 5 सकते उसी प्रकार सम्यकदर्शन धारण किये बिना धर्म का पालन नहीं हो सकता। 9 गुण हैं। जैसे- सामर्थ्य बिना सुंदर शरीर, दरवाजे बिना सुंदर महल तथा चहार दीवारी के यहाँ कोई प्रश्न करे कि साधु के तो अट्ठाईस मूलगुण होते हैं, उनका पालन बिना बगीचा या दुर्ग सुरक्षित और व्यवस्थित नहीं माना जा सकता। जैसे- भोजन X करने वाला ही सच्चा साधु होता है। यहाँ यह तीन गुण रत्नत्रय ही, साधु के सच्चे बिना शरीर, वस्त्र बिना आभूषण, सौंदर्य बिना युवावस्था, कमल बिना तालाब,धान 7 सम्पूर्ण गुण कहना ठीक नहीं है? बिना खेत, सेना बिना राजा, अपनी स्थिति संसार में सम्यक् प्रकार कायम नहीं रख १९६
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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