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________________ O श्री चकाचार जी गाथा-३३५,३३६ LOO लगाना। बना रुल रहा है, जब इसे अपने आत्म स्वरूप का बोध होता है तब यह अन्तरात्मा। ५.संवेग-संसार शरीर भोगों से वैराग्य व धर्म में अनुराग बढ़ता रहे। होता है तथा रत्नत्रय की साधना करके सबसे पहले साधु, उपाध्याय,आचार्य होता। ६. शक्तित: त्याग-शक्ति अनुसार त्याग मार्ग पर चलना तथा चारदान देना। हुआ सर्वज्ञ केवलज्ञानी अरिहंत परमात्मा होता है, जो शरीर सहित अपने स्वभाव में ७.शक्तित: तप-शक्ति अनुसार बारह तपों का पालन करना। * लीन रहते हैं, यह संसार में प्रत्यक्ष दिखने वाला अरिहंत पद है तथा इसी पद से धर्म ८. साधु समाधि-कब जीवन में साधु बने और निर्विकल्प ध्यान समाधि करूं ऐसीका यथार्थ स्वरूप बताया जाता है, यह पूर्ण वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी परमात्मा । भावना होना तथा रत्नत्रय धारक साधुओं की समाधि में बाधक कारणों, उपसर्गों को 5 होते हैं, जिनकी वाणी पर सम्पूर्ण विश्व श्रद्धान विश्वास करता है, यही जब सब दूर करना। ८ कर्मों से मुक्त शरीर रहित परिपूर्ण शुद्ध अपने शद्ध चैतन्य स्वरूप मय हो जाते हैं तब ९.वैयावृत्यकरण-दीन दुःखी जीवों व धर्मात्माओं की सेवा सुश्रुषा करना। १ सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं। १०. अहंत भक्ति-वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा के गुणों का स्मरण करना। क यह पद शाश्वत पद है; परन्तु संसार की अपेक्षा अगोचर है अत: अरिहंत पद ११. आचार्य भक्ति-वीतराग निर्ग्रन्थ साधु सद्गुरू आचार्यों की भक्ति करना। को पहले नमस्कार किया है, अरिहंत सर्वज्ञ ही धर्मोपदेश के दाता परमगुरू होते १२. बहुश्रुत भक्ति-बहुश्रुत के ज्ञाता उपाध्याय की भक्ति करना। 3 हैं। जो आत्मा के शाश्वत अविनाशी सिद्ध पद का स्वरूप बताते हैं और संसार से १३. प्रवचन भक्ति - जिनवाणी (शास्त्र) व धर्म की महिमा बहुमान भक्ति करना। तरने का उपाय बताते हैं। १४. आवश्यक अपरिहाणि-नित्य आवश्यक धर्म क्रियाओं को न छोड़ना। सिद्ध पद की विशेषता और उनके गुण क्या हैं, यह पद कैसे प्राप्त होता है? १५.मार्ग प्रभावना-वीतराग जिन धर्म की प्रभावना करना। यह प्रश्न पूछने पर सद्गुरू तारण स्वामी आगे गाथाओं में स्पष्ट करते हैं - १६. प्रवचन वत्सलत्व-साधर्मियों से प्रेम,वात्सल्य भाव होना। सिद्धं च सुख संमत्तं,न्यानं दरसन दरसितं। इन सोलह कारण भावनाओं का पालन करना, इस रूप चलने की भावना वीर्ज सुहं समं हेतुं, अवगाहन अगुरुलघुस्तथा॥ ३३५ ।। होना,जगत के समस्त जीवों के प्रति मैत्री प्रमोदभाव होना तथा सब जीव सत्यधर्म संमत्तं आदि गुनं सार्थ, मिथ्या मल विमुक्तयं । को समझें, स्वीकार करें, आनंद परमानंद मय रहें, ऐसी भावना तीर्थंकर प्रकृति का बंध कराती है। तीर्थंकर के समान जगत में और कोई श्रेष्ठ पद नहीं होता, अरिहंत सिद्धं गुनस्य संजुत्तं, साधं भव्य लोकयं ।। ३३६ ॥ पद सर्व श्रेष्ठ होता है, जिसकी सौ इन्द्र पूजा भक्ति आराधना करते हैं। तीर्थंकर के ३ अन्वयार्थ- (सिद्धं च सुद्ध संमत्तं) सिद्ध भगवान के शुद्ध सम्यक्त्व होता है पाँच कल्याणक होते हैं- गर्भ,जन्म, दीक्षा (तप),ज्ञान, निर्वाण। अविनाशी आत्मा (न्यानं दरसन दरसितं) अनन्तज्ञान व अनन्तदर्शन प्रत्यक्ष दिखता है (वीर्ज सुह का स्वभाव जब झलक जाता है अर्थात् घातिया कर्मों के क्षय होने पर केवलज्ञान समं हेतु) अनन्त वीर्य, सूक्ष्मपना, अव्याबाधपना तथा (अवगाहन अगुरुलघुस्तथा) प्रगट होता है, तब तीर्थकर देव की दिव्यध्वनि खिरती है, जिससे अनेक भव्य जीव अवगाहनत्व और अगुरुलघुपना यह आठ गुण प्रगट हो जाते हैं। धर्म के यथार्थ स्वरूप को समझकर आत्माभिमुख होते हैं। जिससे संसार के (संमत्तं आदि गुनं साध) सम्यक्दर्शन आदि गुणों के धारी (मिथ्या मल जन्म-मरण के चक्र से छूटकर आत्मा से परमात्मा हो जाते हैं। विमुक्तयं ) मिथ्यादर्शन रूपी मल से रहित (सिद्धं गुनस्य संजुत्तं) सर्व आत्मीक 5 यहाँ कोई प्रश्न करता है कि अरिहंत पद से सिद्ध पद बड़ा और श्रेष्ठ है शाश्वत गुणों से पूर्ण सिद्ध परमात्मा होते हैं (सार्धं भव्य लोकयं) जो भव्य जीवों के द्वारा पद है, फिर पहले अरिहंत पद क्यों रखा है तथा णमोकार मंत्र में सिद्धों से पहिले श्रद्धेय साधने योग्य हैं। अरिहंतों को क्यों नमस्कार किया है? विशेषार्थ- सिद्ध परमात्मा पूर्ण शुद्ध आत्मा होते हैं, तीनों कर्म- द्रव्य कर्म, इसका समाधान करते हैं कि आत्मा अनादि से शरीरादि कर्म संयोग में बहिरात्मा भाव कर्म, नो कर्म का अभाव हो जाने से आत्मा की पूर्ण शक्तियाँ प्रकाशमान हो
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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