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________________ ७ श्री आचकाचार जी है। वह कोई भी हिंसादिपाप करना नहीं चाहता, मजबूरी में करना पड़ता है, होता है जिसे अपना आत्महित करना है, संसार के जन्म-मरण के चक्र से छूटना है, तो वह अपने मन में पश्चात्ताप करता है और इसी अहिंसा की शुद्ध भावना होने से जीवन में सुख शान्ति आनंद में निराकुलता से रहने का जिसका लक्ष्य है, वह अव्रत। वह पानी छानने का यथाविधि पालन करता है। , सम्यक्दृष्टि इन अठारह क्रियाओं का यथाविधि पालन करता है और इस पाप-परिग्रह पानी छानने की विधि वही करेगा जो अहिंसा व्रत भले प्रकार पालने का उद्योगी के गर्त से ऊपर उठने के लिये शुद्ध षट्कर्म (छह आवश्यक कर्तव्य) का पालन होगा व स्थावर व त्रस की हिंसा से भयभीत होगा। बिना छना पानी काम में लेने से करता है, जो पुण्य बंध के कारण और मुक्तिमार्ग पर आगे बढ़ने में सहयोगी साधन अनगिनत त्रस जीवों का भी घात होता है। दयावान गृहस्थ सूत के दोहरे कपड़े से हैं। इनका विशद् विवेचन सद्गुरु तारण स्वामी आगे की गाथाओं में करते हैं - पानी छानता है। छानने का कपड़ा साफ होना चाहिये तथा बर्तन के मुँह से तीन गुना अविरतं सावर्ग जेन, षट्कर्म प्रतिपालये। अर्थात् दो हाथ चौड़ा तीन हाथ लम्बा होना चाहिये। पानीछानने के बाद जो बिलछन, । षद् कर्म द्विविधस्वैव, सुख असुद्धं पस्यते ॥ ३०७॥ कपड़े में पानी बचता है, उसे उल्टा कर दूसरे बर्तन में छने पानी से अलगकर लेना चाहिये, उसे मसलकर निचोड़ना नहीं चाहिये । छने हुए पानी को ढककर रखना सुद्धं षट् कर्म जेन,भव्य जीव रतो सदा। चाहिये। छने हुए पानी की मर्यादा ४८ मिनिट होती है, इसके बाद पुनः छानकर काम असुद्ध षट् कर्म जेन, अभव्य जीवन संसयः॥३०८॥ में लेना चाहिये या प्रासुक कर लेना चाहिये । पानी को गर्म करने से वह प्रासुक हो। सुद्धं असुद्धं प्रोक्तं च, असुद्धं असास्वतं कृतं । जाता है, उबले हुए पानी की मर्यादा २४ घंटे की होती है, सामान्य गरम पानी की सुद्धं मुक्ति मार्गस्य, असुद्धं दुर्गति कारनं ।। ३०९ ॥ मर्यादा १२ घंटे की होती है, इसे लवंग, काली मिर्च, हर्र आदि पीसकर डालने से रंग। बदलने पर प्रासुक हो जाता है ऐसा पानी छह घंटे चल सकता है। पानी छानने के अन्वयार्थ- (अविरतं स्रावगं जेन) जो अव्रत सम्यक्दृष्टि श्रावक हैं वह (षट् बाद का बचा पानी जिसे बिलछानी कहते हैं उसे जहाँ से पानी लिया गया हो, वहाँ १ कर्म प्रतिपालये) षट्कर्म अर्थात् छह आवश्यक कर्तव्यों का पालन करते हैं (षट् यथास्थान पहुँचा देना चाहिये यह क्रिया यथाविधि होवे तभी जल छानने की शुद्धि है। कर्म द्विविधस्चैव) वे षट् कर्म के दो प्रकार के होते हैं (सुद्धं असुद्धं पस्यते) जो शुद्ध जहाँ जलशुद्ध है और मन शुद्ध है वहां अहिंसा और दया का यथाविधि और अशुद्ध देखे जाते हैं (सुद्धं षट् कर्म जेन) जो शुद्ध षट्कर्म हैं (भव्य जीव रतो पालन होता है और वही सच्चा सम्यक्दृष्टि है उसे ही अव्रती श्रावक कहते हैं क्योंकि सदा) भव्य जीव सदा उनमें रत रहते, पालन करते हैं और (असुद्धं षट् कर्म जेन) अव्रत सम्यक्दृष्टि कौन होता है इसको समझना आवश्यक है। जो असुद्ध षट्कर्म हैं (अभव्य जीवन संसयः) उनका जोपालन करते हैं वे अभव्य जो संसार को भय और दुःख की खानिजानता है तथा इससे छूटने की वैराग्य जीव हैं इसमें कोई संशय नहीं है। भावना करता है,जिसे संसार शरीर भोग झूठे नाशवान दुःख के कारण लगते हैं। (सुद्धं असुद्धं प्रोक्तं च) शुद्ध और अशुद्ध षट्कर्म कौन-कौन से हैं, उन्हें जिसे शरीरादि से भिन्न अपने आत्म स्वरूप का श्रद्धान हो गया, वह अव्रत सम्यक् * कहते हैं (असुद्धं असास्वतं कृतं) अशुद्ध षट्कर्म शाश्वत नहीं हैं,कल्पित हैं (सुद्धं दृष्टि है। उसका विवेक जाग्रत हो जाता है और वह विवेकपूर्वक ही हर क्रिया का मुक्ति मार्गस्य) शुद्ध षट्कर्म मुक्ति मार्ग के साधक हैं (असुद्धं दुर्गति कारनं) असुद्ध पालन करता है क्योंकि संयोगी कारणों का और खान-पान का मन पर असर पड़ता। षट्कर्म दुर्गति के कारण हैं। है। मुक्त होने वाले जीवको विषय-कषायों को छोडकर संयम का पालन करना.शास्त्र विशेषार्थ- जो अव्रत सम्यक् दृष्टि श्रावक है वह षट्कर्म (छह आवश्यक स्वाध्याय कर वैराग्य की वृद्धि करना,संसार का स्वरूप अनित्य जानना, दान आदि कर्तव्य) का पालन करता है, वह षट्कर्म निम्नप्रकार कहे गये हैं- देव पूजा, गुरु देना और अपने आत्म स्वरूप का चिंतन मनन करना इसका नाम धर्म है और यही उपासना, शास्त्र स्वाध्याय, संयम, तप और दान। इनके पालन करने से परिणामों मुक्ति का कारण है, विषय कषायों के पोषण का नाम धर्म कदापि नहीं है। में निर्मलता, सम्यक्दर्शन की शुद्धि और आत्म भावना दृढ़ होती है, कषायों की १७७
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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