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________________ Oup श्री श्रावकाचार जी गाथा-२६४.२६६ CHOOL (मिथ्या त्रिविधि न दिस्टते) अविरत सम्यक्दृष्टि में तीन प्रकार का मिथ्या शुद्ध दर्शन होता है ऐसा अविरत सम्यकदृष्टि मोक्षमार्गी जघन्य पात्र होता है। भाव दिखाई नहीं देता (सल्यं त्रयं निरोधनं) तीनों शल्य भी दूर हो जाती हैं (सुधंच इसी बात को कार्तिकेयानुप्रेक्षा में स्वामी कार्तिकेय कहते हैंसुद्ध दर्वार्थ ) शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से अपने शुद्ध स्वभाव को जानता है (अविरत । विसयासत्तो वि सया, सव्वारंभेसु वट्टमाणो वि। संमिक दिस्टितं) ऐसा अविरत सम्यक्दृष्टि होता है। मोह विलासो एसो, इदि सब मण्णदे हेयं ॥३१४॥ विशेषार्थ- अव्रत सम्यक्दृष्टि तीसरा जघन्य पात्र है, जिसके नियम से अणुव्रत अविरत सम्यकदृष्टि यद्यपि इन्द्रिय विषयों में आसक्त है, बस स्थावर जीवों तो नहीं है परन्तु व्रतों के धारण की तीव्र भावना है क्योंकि उसने संसार को भय और का घात जिनमें होता है, ऐसे सब आरम्भों में वर्तमान है, अप्रत्याख्यानावरण आदि दु:ख रूप जान लिया है, उससे छूटने की वैराग्य भावना है। अप्रत्याख्यानावरण कषायों के तीव्र उदय से विरक्त नहीं हुआ है, तो भी सबको हेय (त्यागने योग्य) कषाय के उदय से अतीचाररहित व्रत नहीं पाल सकता तथापि प्रशम,संवेग, अनुकम्पा ! मानता है और ऐसा जानता है कि यह मोह का विलास है मेरे स्वभाव में नहीं है, वआस्तिक्य सहित होता है अर्थात् इसके परिणामों में आकुलता व तीव्र कषाय नहीं उपाधि है रोगवत है, त्यागने योग्य है। रहती है। आत्मा का दृढ श्रद्धान होने से उसके भीतर शांति झलका करती है. संवेग 3 णिज्जियदोस देव,सच्य जिवाणं वया वरं धम्म । भाव होने से संसार शरीर भोगों से दृढ वैराग्यवान होता हुआ धर्म से परम प्रीति रखता वज्जियगंथं च गुरु,जो मण्णदि सो हुसदिद्धि॥३१७॥ है। अनुकम्पा भाव होने से सर्वप्राणी मात्र पर दया रखता है, दुखियों को दुःखी जो जीव दोष रहित को तो देव, सब जीवों की दया को श्रेष्ठ धर्म, निर्ग्रन्थ को देखकर उसका हृदय कम्पायमान हो जाता है, यथाशक्ति वह दुःख दूर करने का गुरु मानता है, वह प्रगट रूप से सम्यक्दृष्टि है, अब सम्यक्दृष्टि के विचार धारणा प्रयत्न करता है, कराता है वदुःख मिट जाने पर हर्ष मानता है। आस्तिक्य भाव होने कहते हैंसे उसे अपने आत्मा पर पूर्ण विश्वास होता है, परलोक का श्रद्धान होता है। कर्म के जं जस्स जम्मि देसे, जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि। बंधव उसकी मुक्ति के ऊपर विश्वास रखता है। सच्चे वीतराग सर्वज्ञ अरिहन्त सिद्ध णाद जिणेण णियद,जम्म वा अहव मरणं वा ।।३२१॥ परमात्मा को देव मानता है तथा जिन प्रणीत अहिंसाधर्म को धर्म मानता है। उसका तं तस्स तम्मि देसे,तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि । सम्यक्त्व भाव निर्मल होता है वह शुद्धात्मा को पहिचानता है तथा शुद्धात्मा का को सक्कदि वारे,इंदो वा तह जिणिदो वा ॥३२॥ अनुभव करता है। जो जिस जीव के, जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से, जन्म तथा उसके पच्चीस मल दोष नहीं होते अर्थात् आठ शंकादिदोष, आठ मद, छह मरण उपलक्षण से दुःख-सुख, रोग दारिद्र आदि सर्वज्ञ देव के द्वारा जाना गया है. अनायतन, तीन मूढता तथा तीन कुज्ञान कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान विला जाते वह वैसे ही नियम से होगा वह ही उस प्राणी के, उस ही देश में, उस ही काल में, उस हैं, वह अपनी सुबुद्धि रूपी सरस्वती अर्थात् सुमति सुश्रुतज्ञान की निर्मल पर्याय से ही विधान से, नियम से होता है, उसको इन्द्र, जिनेन्द्र, तीर्थकर कोई भी निवारण अपने शुद्धात्मा का श्रद्धान ज्ञान करता है। ४ नहीं कर सकते। तीनों प्रकार के मिथ्यात्व- मिथ्यात्व, सम्यक मिथ्यात्व, सम्यक प्रकृति सम्माइट्ठी जीवो, दुग्गदि हेण बंधदे कम्म। ९ मिथ्यात्व अर्थात् यह शरीर ही मैं हूँ,यह शरीरादि मेरे हैं,मैं इन सबका कर्ता है, ऐसी जं बहुभवेसु बद्धं, दुक्कम तं पि णासेदि ॥३२७॥ मिथ्या मान्यता तथा तीनों शल्य मिथ्या माया निदान अर्थात् ऐसा न हो जाये, सम्यकदृष्टि जीव दुर्गति के कारणभूत अशुभ कर्म को नहीं बांधता है और जो ऐसा नहीं ऐसा होता, ऐसा करूंगा- यह सब भावनायें समाप्त हो जाती हैं। वह अनेक पूर्व भवों में बांधे हुए पाप कर्म हैं उनका भी नाश करता है। आगम ज्ञान का प्रेमी होता है, शास्त्रों के मर्म को समझता है तथा शुद्ध द्रव्यार्थिक नय इस प्रकार यह तीनों पात्र सम्यक्दृष्टि मोक्षमार्गी होने से सुपात्र हैं। जो जीव पर विशेष लक्ष्य रखता है क्योंकि इस नय से हर एक शरीर में आत्मा का पवित्र बिना सम्यक्दर्शन के बाह्य व्रत सहित हों वह कुपात्र हैं और जो सम्यकदर्शन तथा १६५
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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