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________________ CRICK 04 श्री आपकाचार जी गाथा-२५६-२५९ COO __इस प्रकार यह पूर्व कथित निश्चय और व्यवहार रूप सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान चाहिये- १. सांसारिक लाभ की इच्छा न होना। २. दान देते समय क्रोध रहित और सम्यक्चारित्र लक्षण वाला मोक्षमार्ग आत्मा को परमात्मा का पद प्राप्त कराता है। शांत परिणाम होना। ३. दान देते समय प्रसन्नता होना। ४. मायाचार छल कपट से इसी बात को तारण स्वामी ने पंडितपूजा में कहा है र रहित होना। ५. ईर्ष्या रहित होना। ६. विवाद (खेद) रहित होना। ७. अभिमान एतत् संमिक्त पूजस्या, पूजा पूज्य समाचेरत। 8 रहित होना। मुक्ति श्रिय पर्थ सुद्ध, विवहार निस्थय सास्वतं ॥३२॥ दान देते समय बहुत श्रद्धा भक्ति व उत्साह पूर्ण भावों से आहारादि का दान । इसी प्रकार सच्ची पूजा, पूज्य के समान आचरण होना ही पूजा है और यह करना चाहिये। दान देते हुए अपने को धन्य मानना चाहिये। गृहस्थ की शोभा दान मोक्ष का शुद्ध मार्ग व्यवहार निश्चय से शाश्वत है। से है। अव्रत सम्यकदृष्टि निरन्तर चार दान की प्रभावना करता है। इस प्रकार अव्रत सम्यक्दृष्टि की अठारह क्रियाओं में यहाँ तक सम्यक्त्व, अष्ट, आगे उत्कृष्ट पात्र सम्यक्दृष्टि साधु का स्वरूप कहते हैंमूलगुण और रत्नत्रय की साधना का वर्णन किया गया, आगे चार दान के स्वरूप का उत्तम जिन रूवी च, जिन उक्तं समाचरेत् । वर्णन करते हैंपात्रं त्रिविधि जानते, दानं तस्य सुभावना। तिअर्थ जोयते जेन, ऊर्ध आधं च मध्यमं ॥२५७॥ जिन रूवी उत्कृष्टं च, अव्रतं जघन्यं भवेत् ॥ २५६॥ षट् कमलं त्रि उर्वकारं, झानं झायंति सदा बुधै। अन्वयार्थ- (पात्रं त्रिविधि जानते) पात्र तीन प्रकार के जानना चाहिये (दानं पंच दीप्तं च वेदंते, स्वात्म दरसन दरसनं ॥ २५८॥ तस्य सुभावना) शुभभावों से उनको दान देना चाहिये (जिन रूवी उत्कृष्टं च)उत्कृष्ट अवधं जेन संपून, ऋजु विपुलं च दिस्टते। पात्र जिनरूवी,जोतीर्थकर के समान निग्रंथ वीतरागी दिगम्बर साधु हैं वे उत्कृष्ट पात्र ५ मनपर्जय केवलं च,जिन रूवी उत्तमं बुध ॥ २५९ ॥ हैं (अव्रतं जघन्यं भवेत्) जो व्रत रहित सम्यकदृष्टि हैं वे जघन्य पात्र हैं। अन्वयार्थ- (उत्तमं जिन रूवी च) उत्तम पात्र जिनरूपी निग्रंथ साधु हैं जो विशेषार्थ- अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् अनुग्रह-उपकार के हेतु से (जिन उक्तं समाचरत्) जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा प्रमाण चारित्र पालते हैं (तिअर्थ धनादि अपनी वस्तु का स्व-पर के हित के अभिप्राय से त्याग करना दान है। विधि, जोयते जेन) जिनने सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का यथार्थ पालन द्रव्य, दातृ और पात्र की विशेषता से दान में विशेषता होती है। किया है तथा जो (ऊर्ध आधं च मध्यम) ऊर्ध्व लोक, अधोलोक और मध्य लोक का १.विधि विशेष-नवधाभक्ति के क्रम को विधि विशेष कहते हैं। स्वरूप जानते हैं। २. द्रव्य विशेष-शुद्ध द्रव्य जो तप, स्वाध्याय आदि की वृद्धि में कारण हो, ऐसे (षट्कमलं त्रि उवंकार) षट् कमल और तीन उर्वकार-ॐ ह्रीं श्रीं (झानं झायंति आहारादि को द्रव्य विशेष कहते हैं। * सदा बुधै) ज्ञानीध्यान की साधना अभ्यास सदा करते हैं (पंच दीप्तं च वेदंते) अपने ३. दातृ विशेष-जो दातार श्रद्धा आदि सात गुणों सहित हो। पंच ज्ञान मयी स्वरूप का अनुभव करते हैं (स्वात्म दरसन दरसनं) अपने आत्म ४. पात्र विशेष-जो सम्यक्चारित्र आदि गुणों सहित हो, ऐसे मुनि आदि को पात्र स्वरूप के दर्शन में लवलीन रहते हैं। विशेष कहते हैं। पात्र तीन प्रकार के होते हैं-१.उत्तम पात्र-सम्यक्चारित्रवान (अवधं जेन संपून) जो अवधिज्ञान से परिपूर्ण (ऋजु विपुलं च दिस्टते) रिजु मुनि, २. मध्यम पात्र-व्रतधारी सम्यकदृष्टि श्रावक, ३. जघन्य पात्र-अविरत और विपुलमति को देखते हैं (मनपर्जय केवलं च) मनः पर्यय और केवलज्ञान की सम्यकदृष्टि श्रावक। साधना करते हैं (जिन रूवी उत्तमं बुधै) वे जिन रूपी निर्ग्रन्थ वीतरागी ज्ञानी साधु दाता को, शुभ भावों पूर्वक दान देना चाहिये तथा सात गुण सहित होना उत्तम पात्र हैं। stabi.chudai.comvedos. ac १६२
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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