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________________ Accoun श्री आचकाचार जी गाथा-२४१ COON और लोभ (गारव त्रि विमुक्तयं) तथा तीन प्रकार का गारव भी छूट जाता है। दर्सनं सुद्ध दर्वार्थ, लोक मूढ़ न दिस्टते। विशेषार्थ- सम्यक्दर्शन होने पर अधोलोक ऊर्ध्वलोक और मध्यलोक का जस्य लोकं च सार्थ च, तिक्तते सुद्ध दिस्टितं ।। २४१ ॥ स्वरूप देखने जानने में आने लगता है अर्थात चार गति और चौरासी लाख योनियों अन्वयार्थ- (दर्सनं सुद्ध दर्वार्थ) जिसे अपने शुद्ध द्रव्य स्वभाव का दर्शन हो। के जन्म-मरण का दु:ख तथा अनादिकाल के परिभ्रमण का स्वरूप समझ में आने गया (लोक मूढ़ न दिस्टते) फिर वह लोक मूढता की तरफ नहीं देखता (जस्य । लगता है। अपने आत्म स्वरूप की साधना और शीघ्र इस संसार से छूटने की भावनालोकं च सार्धं च) जिन बातों को जिन क्रियाओं को लौकिकजन पालते हैं और होने से षट्कमल के योगाभ्यास द्वारा अपने रत्नत्रयमयी स्वरूप को साधने लगता है। श्रद्धान करते हैं (तिक्तते सुद्ध दिस्टितं) शुद्ध दृष्टि उन सबको छोड़ देता है। जहाँ सम्यकदर्शन अर्थात निज शुद्धात्मानुभूति हो जाती है फिर वहाँ मिथ्यात्व विशेषार्थ- यहां सम्यकदष्टि की बात कही जा रही है कि उसे अपने शट टव्य दिखाई नहीं देता। जैसे- सूर्य के उदय होते ही अंधकार विला जाता है इसी प्रकार स्वभाव का दर्शन हो गया अर्थात उसने यह जान लिया कि मैं शुद्ध-बुद्ध अविनाशी सम्यकदर्शन प्रगट होते ही कुज्ञान मिथ्यात्व आदि सारे मल छूट जाते हैं और योगी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूं, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं तथा जब जिस अपने स्वरूप की साधना करता है । यह मिथ्यात्वादि मल मूढता छूटने पर फिर जीव का जैसा जो कुछ होना है वह अपने-अपने कर्मोदयानुसार हो रहा है। जिसके शंकादि आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन, तीन मूढता यह भी दिखाई नहीं देती पण्य का उदय है उसे सब अनुकूलतायें सहज में अपने आप मिल रही हैं और जिसके आर ससारस आशा, स्नह, लाभतथा तान प्रकार का गारव जनरजन राग, कलरजन पाप का उदय है उसके सब विपरीत ही विपरीत हो रहा है, चाहते हुए भी कोई उसका दोष और मनरंजन गारव यह तीन गारव कहलाते हैं, यह भी छूट जाते हैं। इस कछ नहीं करता.साथ नहीं देता, ऐसा निर्णय होने पर वह लोक मूढताओं की तरफ प्रकार सम्यक्दृष्टि अपने स्वरूप की साधना में रत रहता है। ई नहीं देखता, जिन बातों को जिन क्रियाओं को लौकिक जन मानते हैं,पालते हैं और यहा काइप्रश्न करकि अव्रत सम्यक्ाष्ट जघन्य पात्र का अठारह क्रियाआका श्रद्धान करते हैं ऐसी लोक मूढता की सारी क्रियाओं को सम्यक्दृष्टि छोड़ देता है। वर्णन चल रहा है? इसमें जो बताया जा रहा है ऐसा तो किसी अन्य श्रावकाचार आदि संसार में लोग थोडी-थोड़ी सी बात पर डरते हैं। जिसने जो कहा वही मानने लगते ग्रंथों में नहीं लिखा, यह योग आदि की साधना तो जैनधर्म में बताई ही नहीं है? चाहे जिसकी पजा करने लगते हैं। चाहे जैसी मिथ्या क्रियायें पालने लगते हैं इसका समाधान करते हैं कि यह श्रावकाचार किसी की नकल नहीं है। यहाँ तो 5 क्योंकि उन्हें संसारी कामना वासना मोह ममता का भूत लगा है, वह संसारी वस्तुओं अव्रत सम्यकदृष्टि का जीवन कैसा होता है? वह क्या करता है? यह अपने जीवन के पीछे अपना अमूल्य मानव जीवन तथा आत्मा का पतन भी करते रहते हैं, उन्हें से प्रमाणित करके बताया जा रहा है तथा जैनधर्म तो योग साधना का ही धर्म है; दस बात का कोर्ट होश विवेक नहीं है कि क्या उचित है क्या अनचित है क्या हितकारी परन्तु जो जाने वह बताये, जिन्होंने जाना है उन्होंने बताया है और योग साधना ५ है क्या अहितकारी है ? चाहे जहां चाहे जिस कुदेव-अदेव आदि के सामने सिर के भी जैन आगम में कई ग्रंथ हैं। यह सब साधक की अपनी-अपनी साधना * पटकते हैं.चाहे जिसकी पूजा मान्यता करते हैं। लोग कहते हैं, इससे लोगों का भला अलग-अलग होती है क्योंकि सब जीवों के कर्मोदय परिस्थिति, पात्रता, शरीरादिभी भी तो होता है तथा शुभ भाव होने से पुण्य बंध भी होता है परन्तु यह विपरीत तो होता है तथा STA का संहनन भिन्न-भिन्न होता है। उसी अनुसार वह अपनी अनुकूलतानुसार साधना । 5 मान्यता, मिथ्यात्व सहित शुभ भाव भी घोर संसार के कारण हैं, यह सब मिथ्यात्व करता है। मूल अभिप्राय तो अपने आत्म स्वरूप के श्रद्धान और आत्म कल्याण की महापाप दुर्गति का कारण है। संसार में लोग न जाने क्या-क्या करते हैं, उनसे पूछते भावना से है और जिसे यह होता है, उसके जीवन में यह सब सहज में होने लगते हैं कि भाई! इसका क्या मतलब है और इसके करने से क्या लाभ है? तो वे कहते हैं। यह हम कुछ नहीं जानते, जैसे हमारे बुजुर्ग करते थे या अन्य लोग करते हैं वैसा ही आगे इसी सम्यक्दर्शन की और विशेषता का वर्णन करते हैं हम भी करते हैं। यह सब लोक मूढ़ता दुर्गतियों का कारण है, इन सबको सम्यकदृष्टिल
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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