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________________ Ouक श्री श्रावकाचार जी गाधा-२३२-२३४ c om मुर्गी पालने वाले को आप देखें, वे मिट्टी के बर्तन में बेसन डालकर ऊपर से मधु का सम्मिश्रण,दो मुहूतों के अनन्तर विज्ञजन। मही सींचते हैं तथा उसमें थूकते हैं, इससे उसमें कीड़े पैदा हो जाते हैं, जिनको मुर्गी अगणित सों सम्मूर्छनों का केन्द्र बनजाता सघन ॥ के छोटे-छोटे बच्चे खाते हैं। जिन वस्तुओं का स्वाद बिगड़ जावे उनको भी नही ५ पत्तीपुहुप औशाक जो, होती वनस्पति काय हैं। खाना चाहिये क्योंकि उनमें भी सम्मूर्च्छन,त्रस जीव पैदा हो जाते हैं। इन चीजों का उनमें विचरते जीव नित, सम्मूर्छन पर्याय हैं। भक्षण करना भी मांस भक्षण का दोष है अतः जो मांस भक्षण के त्यागी हैं उनको त्यागो इन्हें इनका ग्रहण करना सभी विधि हेय है। इनका भी त्याग करते हुए अपने नियम को सहीपालन करना चाहिये। अव्रत सम्यकदृष्टि व्यापार भी इनका नहीं करना इसी में श्रेय है। विवेकशील इन सब बातों को जानता हुआ विवेकपूर्वक आचरण करता है। जो कंद हैं.जो बीज हैंया जो विदल हैं विज्ञजन। आगे मधु त्याग का स्वरूप बताते है जिनके कि कण कण में विचरते,नित्यप्रति सम्मूर्छन । मधुरं मधुरस्चैव, व्यापारं न च क्रीयते । जो अष्टगुण को चाहता, करता हृदय का हार है। मधुरं मिस्रिते जेन, द्वि मुहूर्त संमूर्छनं ।। २३२ ॥ इनका कभी करता न वह, व्यापार या व्यवहार है॥ संमूर्छन जथा जानते, साकं पुहपादि पत्रयं । विशेषार्थ- यहाँ तीन मकार में अन्तिम मधु त्याग का वर्णन चल रहा है। मधु अर्थात् शहद यह मधुमक्खियों द्वारा फूलों आदि के रस से संग्रहीत की जाती है पर तिक्तंते न च भुक्तं च, दोषं मांस उच्यते ॥ २३३॥ इसमें ही उनकी विष्ठा, अण्डे आदि भी दिये जाते हैं और जब यह तोड़ी जाती है तो कंदं बीजं जथा नेयं,संमूर्छन विदलस्तथा। है हजारों लाखोंमधुमक्खियों की हिंसा होती है; इसलिये एक बूंद शहद खाने में हजारों व्यापारे न च भुक्तंच,मूलगुनं प्रति पालये॥२३४॥ जीवों की हिंसा का दोष लगता है तथा इसमें सम्मूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति तोप्रतिसमय से होती ही रहती है, किसी अन्य पदार्थ में मिलाने पर दो मुहूर्त में उसमें भी असंख्यात अन्वयार्थ- (मधुरं मधुरस्चैव) शहद और शहद जैसी मीठी वस्तुएँ (व्यापार ॐ सम्मूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति हो जाती है इसलिये विवेकवान श्रावक न तो इसे खाते नचक्रीयते) इनका व्यापार भी नहीं करना चाहिये (मधुरं मिस्रितेजेन) जिन वस्तुओं हैं,न इसका व्यापार करते हैं तथा इसी तरह की अन्य वस्तु गुड़ आदि की राव भीन में शहद या शहद जैसा अन्य पदार्थ मिला हो (द्वि मुहूर्त संमूर्छन) उसमें दो मुहूर्त खाना चाहिये, न व्यापार करना चाहिये और जिन चीजों में सम्मूर्च्छन जीवों की अर्थात् डेढ़ घन्टा में असंख्यात संमूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। उत्पत्ति होवे , ऐसे कंदमूल-फल, बीज, साग, पत्ती आदि भी न खाना चाहिये, न (संमूर्छनं जथा जानते) संमूर्च्छन के बराबर जानना चाहिये (साकं पुहपादि व्यापार करना चाहिये तभी यथार्थतया अष्ट मूलगुण का पालन होता है। पत्रयं) साग सब्जी, फूल, पत्ते आदि (तिक्तंतेनचभुक्तंच) जो इनको छोड़ता नहीं है और खाता है (दोषं मांस उच्यते) उसे मांस का दोष कहा गया है। यहाँ कोई प्रश्न करता है कि यह अष्ट मूलगुण का पालन करने वाला तो अव्रती होता है, यहाँ इनके अतिचार सहित विवेचन किया है तो यह तो व्रती श्रावक की (कंदं बीजं जथा नेयं) कंदमूल, बीज, अनाज और इसी प्रकार की अनेक क्रियायें हैं, जो व्रती श्रावक प्रतिमाधारी होते हैं वह इनका अतिचार रहित पालन वस्तुएं जिनमें (संमूर्छनं विदलस्तथा) संमूर्च्छन और द्विदल जैसी वस्तुएँ आती हैं। करते हैं। आपने यहाँ अव्रत सम्यकदृष्टि की अठारह क्रियाओं में ऐसा विवेचन किया 2 । (व्यापारेन च भुक्तंच) इनको न खाना चाहिये और न इनका व्यापार करना चाहिये और कह रहे हैं कि यह तो अच्छे-अच्छे व्रती,त्यागी, साधु भी ऐसा पालन नहीं करते (मूलगुनं प्रति पालये) तभी सही मूल गुणों का पालन होता है। और न ऐसा किसी अन्यशास्त्र में ही लिखा है फिर आपका यह अलग से ऐसा निरूपण मधु मांस मयों का,न जिनमें रेहनन का पार है। करने का क्या अभिप्राय है? करते नहीं,जो विज्ञ होते हैं कभी व्यापार हैं। इसका समाधान करते हैं कि भाई! यह कोई लादी हुई थोपी हुई क्रियायें नहीं। १५२
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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