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________________ RSON श्री श्रावकाचार जी गाथा-२१८,२१९ Pre स्पर्श आदि के द्वारा स्पष्ट रूप से जुदा-जुदा पहिचान लेते हैं, उसी प्रकार आपस में जैसे शरीर का कोढ़ी (अपने रक्त संबंध से) अपने कुल का विनाश कर देता G अनादिकाल से मिले हुए शुद्ध चिद्रूप शरीर और कर्मों के स्वरूपको भी अनुभव ज्ञान है, उसी प्रकार मिथ्यात्व भी अपनी आत्मा के दान आदि सद्गुणों और सद्गति का के बल से वे बिना किसी रोक-टोक के स्पष्ट रूप से जुदा-जुदा जान लेते हैं। . विनाश करता है। अहो ! संसार में मिथ्यात्व ही कष्टप्रद है। जिस प्रकार चंदन वृक्ष पर लिपटा हुआ सर्प अपने बैरी गरूड पक्षी को देखते * एक्क खणं णवि चिंतदि मोक्ख णिमित्तं णियप्पसम्भाव। ही तत्काल आँखों से ओझल हो जाता है, पता लगाने पर भी उसका पता नहीं लगता, अणिसि विचिंतदिपावं बहुला लावं मणो विचिंतेदि॥४९॥ उसी प्रकार भेद विज्ञान के उत्पन्न होते ही समस्त कर्म आत्मा को छोड़कर न मालूम मिच्छामदिमदमोहासवमतो बोल्लदे जहा भुल्लो। कहाँ लापता हो जाते हैं। भेदविज्ञान के उत्पन्न होते ही कर्मों की सूरत भी दिखाई ८ तेण ण जाणदि अप्पा अप्पाणं सम्म भावाणं ॥५०॥ नहीं देती। मिथ्यादृष्टि जीव मोक्ष प्राप्ति के निमित्तभूत अपने आत्म स्वभाव का चिन्तन इसी भेदविज्ञान के बल से यह आत्मा शुद्ध चिद्रूप को प्राप्त कर केवलज्ञानी एक क्षण भी नहीं करता। दिन-रात पाप का चिन्तन करता है और मन से दूसरों के तीर्थकर और जिनेश्वर कहलाने लगाता है । यह सम्यक्दर्शन की महिमा बड़ी बारे में अनेक बातें सोचता रहता है। अपूर्व है। इसी बात को अगली गाथा में कहते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव मद और मोह की मदिरा से मतवाला होकर भुलक्कड़ के संमिक्त सहित नरयम्मि, संमिक्त हीनो न चक्रियं । समान प्रलाप करता है इसलिये वह आत्मा को और आत्मा के साम्यभावों को नहीं संमिक्तं मुक्ति मार्गस्य, हीन संमिक्त निगोदयं ।। २१८॥ जानता है। सम्माविट्ठी कालं बोल्लदि वेरग्गणाण भावहिं। अन्वयार्थ- (संमिक्त सहित नरयम्मि) सम्यक्दर्शन सहित नरक में रहना मिच्छाविट्ठी बांछा, दुग्भावालस्स कलहेहिं ॥५२॥ अच्छा है (संमिक्त हीनो न चक्रिय) सम्यक्त्व से हीन चक्रवर्ती होना भी लाभकारी सम्यक्दृष्टि वैराग्य और ज्ञानभाव से समय को व्यतीत करता है जबकि नहीं है (संमिक्तं मुक्ति मार्गस्य) सम्यक्दर्शन ही मुक्ति का मार्ग है (हीन संमिक्त 3 मिथ्यादृष्टि आकांक्षा, दुर्भाव, आलस्य और कलह से अपना समय बिताता है। निगोदयं) सम्यक्त्व हीन निगोद का मार्ग है। सम्मत्त गुणाइ सुगवि, मिच्छादो होवि दुग्गवी णियमा। विशेषार्थ- यहाँ सम्यक्त्व की महिमा बताई जा रही है कि सम्यक्दर्शन सहित इदि जाण किमिह बहुणा, सच्चदित कुज्जाहो ॥६१॥ नरक में रहना भी अच्छा है और सम्यक्त्व से हीन चक्रवर्ती होना भी व्यर्थ है; क्योंकि सम्यक्त्व गुण से नियम से सुगति और मिथ्यात्व से दुर्गति होती है, ऐसा जान सम्यक्त्व से हीन अज्ञानी मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा यदि पुण्य के उदय से चक्रवती भी हो . यहाँ अधिक कहने से क्या लाभ है? जो तुझे अच्छा लगे वह कर। जाये तो वह अपनी अज्ञानता से वर्तमान सुख नहीं भोगेगा। आशा, तृष्णा, माया, इसी बात को तारण स्वामी आगे की गाथा में कहते हैंमोह में फँसकर नाना कुकर्म कर नरक निगोद चला जाता है। सम्यक्दृष्टि ज्ञानी अगर संमिक्त संजुत्त पात्रस्य, ते उत्तमं सदा बुधै। पूर्व के अशुभ कर्मों के उदयानुसार नरक आदि में भी जाता है तो वहाँ भी अपने स्वरूप की स्मृति से आनंद में रहता है और परम्परा मोक्ष जाता है इसलिये एक मात्र हीन संमिक्त कुलीनस्य,अकुली अपात्र उच्यते ॥ २१९॥ सम्यक्दर्शन ही मोक्ष का मार्ग है। सम्यक्त्व से हीन मिथ्यात्व तो संसार नरक निगोद अन्वयार्थ- (संमिक्त संजुत्त पात्रस्य) सम्यक्त्व से युक्त कोई भी पात्र अर्थात् काही कारण है। इसी बात को आचार्य कुन्दकुन्द देव रयणसार में कहते हैं- कोई भी जीव वह किसी जाति, किसी कुल का हो (ते उत्तमं सदा बुधै) ज्ञानीजन तण कुट्ठी कुल भंग कुणदि जहा मिच्छमप्पणो वितहा। हमेशा उसे ही उत्तम श्रेष्ठ कहते हैं (हीन संमिक्त कुलीनस्य) यदि कोई बड़े घर का, दाणादि सुगुण भंग गदि भंग मिच्छ मेव होक ॥४७॥ उच्च कुल का भी हो और सम्यक्त्व से हीन है तो (अकुली अपात्र उच्यते) वह नीच , statosierructobercuettable १४४
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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