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________________ माधा-२११,२१२८ Ou40 श्री बाचकाचार जी शून्य तो शून्य ही है। उसी प्रकार सम्यक्त्व के बिना ज्ञान और चारित्र व्यर्थ ही है। शुद्धात्मानुभूति, शुद्ध तत्व की श्रद्धा हो जाती है वह अवश्य ही मोक्ष जाता है। जैसे-जंगली बेर या गुलमोहर का बहुत बड़ा बगीचा लगा हो, चारों तरफ बहुत पेड़ इसी बात को योगीन्दुदेव परमात्मप्रकाश में कहते हैं७ होवें परन्तु वह किसी के लिये उपयोगी कार्यकारी नहीं है। न वहाँ खाने योग्य फल हैं, जे रयणत्तउ णिम्मलउ णाणिय अप्पु भणन्ति। न खुश्बूदार फूल हैं। इसी प्रकार बाहर से बहुत पढ़ा लिखा हो अथवा संयम सदाचार ते आराहय सिव पयह णिय अप्पा झार्यति ॥ २/३२॥ आदि का पालन करता हो, अनेक प्रकार के तप तपता हो परन्तु आत्मज्ञान शून्य है। जो ज्ञानी रागादिदोषरहित निर्मल रत्नत्रय को आत्मा कहते हैं वे शिव पद के जिसे स्वयं का ही बोध नहीं है, स्व-पर का भेदज्ञान नहीं है तो इससे कोई भी लाभ, आराधक हैं और वे ही मोक्ष पद के आराधक हुए अपने आत्मा को ध्याते हैं। आत्म कल्याण होने वाला नहीं है क्योंकि जिसकी दृष्टि बाहर पर की तरफ है वह यहाँ समीक्षात्मक रूप से सम्यक्त्व सहित क्या होता है ? और सम्यक्त्व सारे ज्ञान और चारित्र का उपयोग पर के लिये ही करेगा। सबको बतायेगा समझायेगा रहित क्या होता है ? सद्गुरू इसी प्रसंग का आगे गाथाओं में वर्णन करते हैं - बाहर से खूब प्रभावना प्रसिद्धि होगी और वह इसी में फूला अपने आपको भूला संमिक्तं जस्य तिक्तंच, अनेय विभ्रमजे रता। कषायाधीन परिणमन कर दुर्गति में चला जायेगा। मिथ्या मय मूढ दिस्टीच, संसारे भ्रमनं सदा ॥ २१२॥ जो सम्यकदृष्टि रत्नत्रय संयुक्त है, वह मोक्ष जायेगा इसी बात को आगे गाथा अन्वयार्थ- (संमिक्तंजस्य तिक्तंच) जिस जीव को सम्यक्त्व नहीं हैं (अनेय में कहते हैं विभ्रम जे रता) जो अनेक विभ्रम,संशय, शंका भय आदि में रत है (मिथ्या मय मूढ सुद्ध संमिक्त उक्तं च , रत्नत्रयं संजुतं । दिस्टी च) वह मिथ्यात्वी, मूढ दृष्टि बहिरात्मा है (संसारे भ्रमनं सदा) जो हमेशा सद्ध तत्वं च सार्थ च,संमिक्ती मुक्ति गामिनो ॥ २११॥ संसार में ही भ्रमण करेगा। अन्वयार्थ- (सुद्ध संमिक्त उक्तं च) शुद्ध सम्यक्त्व उसे कहते हैं (रत्नत्रयं विशेषार्थ-जो जीव अपने आत्म स्वरूप में नहीं ठहरा है अर्थात् जिसे स्व का संजुतं) जो रत्नत्रय संयुक्त है अर्थात् सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र सहित 8 बोध नहीं हुआ, जिसे अपने आत्म स्वभाव की श्रद्धा नहीं है, वह अनेक विभ्रम, हो (सुद्ध तत्वं च साधं च) और शुद्धात्म तत्व का श्रद्धानी अर्थात् अनुभवी होसंशय, शल्य, शंका, भय आदि संकल्प-विकल्पों में रत रहता है, वह मिथ्यात्व (संमिक्ती मुक्ति गामिनो) ऐसा सम्यक्त्वीजीव मोक्षगामी होता है। सहित मूढ दृष्टि है और हमेशा संसार में भ्रमण करेगा: क्योंकि जिसे अपने आत्म विशेषार्थ- यहाँ सम्यक्त्व की विशेषता का वर्णन चल रहा है। सम्यक्त्व सहित स्वरूप का बोध नहीं हुआ, जिसे अभी यह भान नहीं है कि इस शरीरादि से भिन्न मैं जीव मोक्षमार्गी होता है। उसके सब व्रत संयमतप मोक्षमार्ग में सहकारी होते हैं तथा । एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं हूँ, यह सम्यक्त्व से हीन जीव बाह्य में कितना ही पढ़े लिखे व्रत संयम आदि करे परन्तु उससे मेरे नहीं हैं- वह इस शरीरादि पर्याय में लीन हुआ अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है। वह नाना मोक्षमार्ग नहीं बनता, मुक्ति नहीं होती। यह सम्यक्त्व की अर्थात् सच्चे धर्म निज प्रकार के संकल्प-विकल्प करके अनंत कर्मों का बंध करता है, संसार में रुलता शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति श्रद्धान की महिमा है। 3 है। वर्तमान जीवन में दःखी और भयभीत रहता है, बाह्य में पुण्योदय की अनुकूलता यहाँ प्रश्न आया कि शुद्ध सम्यक्त्व किसे कहते हैं? सदगुरू समाधान करते हैं हो तो भी वह उसका भोग नहीं करता, भविष्य की आशा तृष्णा में आकुल-व्याकुल कि शुद्ध सम्यक्त्व उसे कहते हैं जो रत्नत्रय संयुक्त हो अर्थात सम्यकदर्शन. " बना रहता है। सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र सहित होक्योंकि सम्यक्दर्शन होते ही ज्ञान, सम्यक्ज्ञान इसी बात को योगीन्दुदेव परमात्म प्रकाश में कहते हैंहो जाता है और मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी कषाय के उपशम होने से स्वरूपाचरण पज्जय स्त्तउ जीवडउ मिच्छादिठ्ठि हवेइ। चारित्र पैदा हो जाता है। यदि सम्यक्दर्शन के साथ तीनों ही न हों तो सम्यक्दर्शन बंधइ बहु विह कम्मडाजें संसारु भमे॥१-७७॥ को मोक्षमार्ग नहीं कह सकते हैं तथा जिसको ऐसा सम्यक्त्व हो जाता है अर्थात् निज शरीरादि पर्याय में लीन हुआ जो अज्ञानी जीव है, वह मिथ्यादृष्टि होता है।
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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