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________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-२०४-२०७D OO पात्र अव्रत सम्यक्दृष्टि के सच्चे श्रद्धान को और आगे कहते हैं १.तीनों कुज्ञानों से बिल्कुल मुक्त हो गया। मति न्यानं च उत्पादंते, कमलासने कंठ स्थितं । २.मिथ्यात्व की छाया भी नहीं रही। यहाँ यह समझना है कि उपयोग के दो। भेद हैं - दर्शन और ज्ञान । इन पर मिथ्यात्व कज्ञान का आवरण होने से जीव उर्वकारं सार्थ च, तिअर्थ साधुवं । २०४।। * बहिरात्मा हो रहा है। जिसके ज्ञान पर से कुज्ञान हट गया और दर्शन पर से मिथ्यात्व कुन्यानं त्रि विनिर्मुक्तं, छाया मिथ्या तिक्तयं । बिला गया वह शुद्ध सम्यक्दृष्टि है। उवं हियं श्रियं सुद्ध, सार्धं न्यान पंचमं ।। २०५॥ ३. ॐ ह्रीं श्रीं स्वरूप केवलज्ञानमयी निज शुद्धात्मा की साधना करता है। देवं गुरुं धर्म सुद्धस्य, सुख तत्व सार्थ धुवं । ८ इसी प्रकार सच्चे देव गुरू धर्म स्वरूप अपने शुद्धात्म तत्व ध्रुव स्वभाव की , साधना करता है अर्थात् इसे ही एक मात्र इष्ट उपादेय आराध्य मानता है वह शुद्ध संमिक दिस्टि सुद्धं च, संमिक्तं संमिक दिस्टितं ॥२०६॥ सम्यकदृष्टि है और ऐसे सम्यक्दृष्टि की पहली क्रिया सम्यक्त्व की साधना है। अन्वयार्थ- (मति न्यानं च उत्पादंते) जिस जीव को सुमति ज्ञान उत्पन्न हो ज्ञान भाव ज्ञानी करे, अज्ञानी अज्ञान । गया है (कमलासने कंठ स्थितं) उसके कमलासन पर कंठ में स्थित सरस्वती स्वरूप दर्व कर्म पुद्गल करे,यह निश्चय परवान॥ सुबुद्धि का जागरण हो गया (उर्वकारं सार्धं च) और जो ऊंकार स्वरूप की साधना में पूर्व उदै सन बंध, विषै भोगवे समकिती। रत है (तिअर्थ साधू धुवं) वह अपने रत्नत्रयमयी ध्रुव तत्व का श्रद्धानी है। करेन नूतन बंध,महिमा ज्ञान विराग की॥ (कुन्यानं त्रि विनिर्मुक्तं) तीनों प्रकार के कुज्ञान से बिल्कुल मुक्त हो गया है। सम्यक्दृष्टि की दशा क्या होती है इसे नाटक समयसार में कहते हैं(छाया मिथ्या तिक्तयं) मिथ्यात्व की छाया भी छूट गई है अर्थात् मिथ्यात्व की छाया सम्यकवंत सदा उर अंतर,ज्ञान विराग उभै गुन धारे। भी दिखाई नहीं देती (उवं हियं श्रियं सुद्धं ) ॐ ह्रीं श्रीं स्वरूप शुद्ध (साधं न्यान जासुप्रभाव लखे निज लच्छन,जीव अजीव दसा निरवारे॥ पंचम) पंचमज्ञान अर्थात् केवलज्ञान की साधना करता है। आतम को अनभौ करिहैथिर.आप तरें अर औरनि तारें। (देवं गुरुं धर्म सुद्धस्य) सच्चे देव गुरू धर्म स्वरूप (सुद्ध तत्व साधं धुवं) साधि सुदर्व लहैं शिव सर्म,सुकर्मउपाधि विथा वमिडारे ॥ अपने शुद्धात्म तत्व ध्रुव स्वभाव की साधना करता है (संमिक दिस्टि सुद्धं च) वह सम्यक्दृष्टि हमेशा अपने अंतर में ज्ञान और वैराग्य का चिन्तन करता है। शुद्ध सम्यकदृष्टि है (संमिक्तं संमिक दिस्टित) और शुद्ध सम्यक्दृष्टि का सम्यक्त्व जैसी अनुकूलता पात्रता होती है उस रूप आगे बढ़ता है। इसी बात को आगे की सही है। ९. गाथा में कहते हैंविशेषार्थ-जघन्य लिंग अव्रत सम्यकदष्टि की पहली क्रिया सच्चा सम्यक्त्व संमिक्तं जस्य सुखं च, व्रत तप संजमं सदा। कब होता है, क्या है ? यहाँ यह बताया जा रहा है। जिसको सुमति ज्ञान उत्पन्न हो गया है, जिसकी सुबुद्धि का जागरण हो गया,जो ॐकार स्वरूप शुद्धात्म तत्व की अनेय गुन तिस्टंते, संमिक्तं सार्थ बुध॥ २०७॥ साधना में संलग्न है, अपने रत्नत्रयमयी ध्रुव तत्व का श्रद्धानी है यही सम्यक्त्व है,5 अन्वयार्थ- (संमिक्तं जस्य सुद्धं च) जिसको सच्चा सम्यक्त्व है वह (व्रत 9 इसके अंतर्गत यहाँ चार बातें प्रमुख रूप से बताई गई हैं। तप संजमं सदा) हमेशा व्रत तप संयम की भावना रखता है (अनेय गन तिस्टंते) १.सुमति ज्ञान का उदय, २. सुबुद्धि विवेक का जागरण, ३. ॐकार स्वरूप इससे उसमें अनेक गुण आ जाते हैं अर्थात् प्रगट हो जाते हैं (संमिक्तं साधं बुधै) शुद्धात्म तत्व की साधना, ४. अपने रत्नत्रयमयी ध्रुव तत्व का श्रद्धान। इसलिये बुद्धिमानों को सम्यक्त्व का श्रद्धान करना चाहिये। दूसरी अपेक्षा तीन बातें और भी हैं विशेषार्थ- जघन्य पात्र अव्रत सम्यक्दृष्टि की पहली क्रिया सम्यक्त्व की reaknekoirmedheknormesh
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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