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________________ ७ श्री आपकाचार जी गाथा-१९१,१९५ 0 उसका समाधान करते हैं कि द्रव्य दृष्टि से जीव त्रिकाल शुद्ध है परंतु पर्याय से यहाँ प्रश्न कर्ता तर्क करता है कि जैसे डाक्टर और डाकू दोनों की क्रिया एक तो अभी अशुद्ध है। सिद्ध के समान अशरीरी शाश्वत अविनाशी निरंजन है परंतु अभी और अभिप्राय भाव में अंतर होता है और उसी रूप परिणमन मिलता है फिर यह कैसे वर्तमान में तो शरीर में है। कर्म संयोग निमित्त-नैमित्तिक संबंध है; क्योंकि अगर इस ५ नहीं हो सकता? बात को नहीं मानते हैं तो एकान्तवादी निश्चयाभासी, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि हो उससे कहते हैं कि यह शुभ-अशुभ भावों की बात है। शुभ भाव में अशुभ जाओगे। ज्ञानी तो वह है जो वस्तु स्वरूप को यथार्थ जैसे का तैसा जानता मानता है क्रिया और अशुभ भाव में शुभ क्रिया यह तो संसार में चलता है परन्तु जहाँ शुद्ध तथा मोक्ष का मतलब जीव और पुद्गलादि कर्मवर्गणाओं का शुद्ध होकर 5 भाव होवे वहाँ अशुभ क्या,शुभ क्रिया भी होवे तो भी नहीं हो सकती। प्रत्यक्ष प्रमाण भिन्न-भिन्न हो जाना है। दोनों शुद्ध न होंगे तो मोक्ष भी नहीं हो सकता, जितने २४ है जब कि छठे गुणस्थानवर्ती साधु सातवें गुणस्थान में जाते हैं, एक समय के लिये पुद्गलादि कर्म वर्गणा जिस जीव के साथ लगे हैं, वह भी शुद्ध होंगे तभी मुक्ति है, तो र शुद्धोपयोग शुद्ध स्वभाव में लीन होते हैं तो सारी क्रिया रुक जाती है। यह शुद्ध शुद्धा जब जीव को निज शुद्धात्मानुभूति, धर्म का आश्रय सम्यक्दर्शन होता है उसी समय "S स्वभाव धर्म की महिमा है इसलिये जो बात जैसी है, उसे उस रूप में जानना मानना माय से कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा होने लगती है। कर्म स्वयं भागने लगते हैं और ही हितकारी है। धर्म मार्ग पर चलने वाले की निश्चय में अंतरंग में अपने शुद्धात्म शरीर के द्वारा व्रत संयम तप अपने आप होने लगता है। देखने में, कहने में ऐसा 18 स्वरूपकी साधना आराधना चलती है और बाहर से यह सब संयमतप आदि भी होते आता है कि यह किये जा रहे हैं परन्तु सम्यकदृष्टि के वह अपने आप होते हैं। हैं। वही मोक्षमार्गी है, वह अवश्य मोक्ष जायेगा, इसमें कोई संशय नहीं है। जैसे-बीज को बोने का लक्ष्य फल पाना है परन्तु बीज में अंकुर पत्तेटहनीफूल आदि २ यहां इतना जोर देकर कहने का अभिप्राय यह है कि अभी तक धर्म के स्वरूप भी होते हैं, न होवें ऐसा होता ही नहीं है, अन्त में फल मिलता है। इसी प्रकार का को जानने मानने की बात थी, सम्यक्दर्शन की विशेषता थी। जिसने ऐसे सत्य धर्म सम्यकदृष्टि को, जिसका लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है, उसको भी यह सब व्रत तप आदि होते सई को स्वीकार कर लिया निज शुद्धात्मानुभूति, निश्चय सम्यकदर्शन हो गया, जो हैं, न होवें ऐसा हो ही नहीं सकता। अव्रती असंयमी. गृहस्थ कभी भी मोक्ष नहीं जा5 अन्तरात्मा है वह परमात्मा होने का पुरुषार्थ करता है। धर्म मार्ग पर चलता है तो सकता । मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रथम महाव्रती साधु होना आवश्यक है इसके बगैर - उसकी साधना का क्रम क्या है? धर्मी जीव का प्रारंभिक मार्ग कहाँ से कैसे बनता सिद्ध पद होता ही नहीं है। इसी बात को तारण स्वामी ने पंडित पूजा ग्रन्थ में कहा है है इसका वर्णन इस श्रावकाचारजी ग्रन्थ में सद्गुरु तारण स्वामी आगे विशेष महत्व एतत् संमिक्त पूजस्या, पूजा पूज्य समाचरेत। 5 लिये हुए आगम और अनुभव के आधार पर स्वयं के जीवन का प्रामाणिक स्वरूप मुक्ति श्रियं पंथ सुद्ध, विवहार निस्चय सास्वतं ॥३२॥ आगे बता रहे हैं। यहाँ दो बातें बताई हैं - मुक्ति मार्ग का पथिक अन्तरात्मा १. सच्ची पूजा क्या है ? पूज्य के समान आचरण ही सच्ची पूजा है। मुक्ति मार्ग के पथिक तीन प्रकार के होते हैं, जिन्हें शास्त्रीय भाषा में पद या २. मुक्ति का शुद्ध पथ सच्चा मार्ग क्या है? जो निश्चय-व्यवहार से शाश्वत लिंग कहते हैं-१. सामान्य गृहस्थ,२.त्यागी व्रती,३. महाव्रती साध। यहाँ उनका है जिसकी अंतरंग और बहिरंग दशा एक सी होती है वही मोक्षमार्गी है। स्वरूप बताया जा रहा है - यहाँ कोई कहे, हमारे भाव तो शुद्ध हैं. क्रिया कैसी होती रहे उससे क्या लिंगं च जिनं प्रोक्तं,त्रिय लिंग जिनागर्म । लेना देना? उत्तम मध्यम जधन्यं च, क्रिया त्रेपन संजुतं ॥ १९५॥ उससे कहते हैं कि भाई! ऐसा त्रिकाल में नहीं होता। सूर्य का उदय होवे और उत्तम जिन रूवीच, मध्यमं च मति श्रुतं । रात्रि भी रहे, प्रकाश अंधकार दोनों एक साथ नहीं होते। इसी प्रकार जहाँ भाव शुद्ध होवे और क्रिया अशुद्ध होवे ऐसा त्रिकाल हो नहीं सकता। जघन्यं तत्व सार्धं च,अविरतं संमिक दिस्टितं ॥१९६ ॥ Aeonorrect
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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