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________________ SO4 श्री श्रावकाचार जी गाचा-१३ DOO की महिमा ---- कर्म अपने आप क्षय हो रहे हैं ---- वह देखो शुद्ध प्रकाश ___ --शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्वं ---- समस्त संकल्प विकल्प मुक्तं ---- रत्नत्रयं । शुद्धात्म तत्व ---- नादुन बिंदु नकारं नहि उत्पत्ति षिपति धुव सुद्धं,सुद्धं सुद्ध लंकतं विस्वरूपं----तत्वार्थसार्धबहभक्ति जुक्तं----जेधर्मलीना गुन चेतनेत्वं सरूवं सुद्धं तियलोयमत्त निम्मलय। ---- ते दुष्य हीना जिन सुद्ध दिस्टि----संप्रोषि तत्वं सोई न्यान रूपं---- जय हो जय हो---- अपूर्व आनंद,दसवाँ गुणस्थान सूक्ष्म साम्पराय-- ब्रजन्ति मोष्यं षिनमेक एत्वं----जय हो-जय हो----देखो वह अपना सिद्ध वाह-वाह जय हो जय हो----सारी कषायें क्षय हो गई----चारित्र मोहनीय स्वरूप अजोग केवलिनो----परमप्पा निम्मलो सहावं----आनंद-परमानंद विला गया ---- देखो देखो ---- वह अपने शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्व को ही ----नंतचतुष्टय मुक्ति संपत्तो----सिद्धं सिद्ध सरूवं ---- सिद्धं सिद्धि सौष्य देखो, उसी में लीन रहो ---- देखो यह बारहवाँ क्षीणमोह गुणस्थान ---- जय संपत्तं । नन्दो परमानंदो---- सिद्धो सुद्धो मुनेयव्वो॥ हो-जय हो----सारेघातिया कर्म-मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण,अन्तराय (ज्ञानसमुच्चय सार-७०३) सब क्षय हो गये ---- वह देखो,अनन्तदर्शन ---- अनन्तज्ञान ---- वह देखो वह अयोग केवलि ---- सिद्ध दशा, सब शरीरादि का संबंध छूट अनन्तसुख---- अनन्तवीर्य प्रगट हो रहे हैं ---- यह केवलज्ञान सूर्य चमक गया----अशरीरी पर्णशद्ध परमानंदमयी-सिद्ध स्वरूप---- उर्व नम: एकत्वं रहा है। ----जय हो----जय हो----तेरहवाँ गुणस्थान सयोग केवलि -तरहवा गुणस्थान सयाग कवाल-3 ----पद अर्थ नमस्कार उत्पन्नं ---- उर्वकारं च विंदं ---- विंदस्थं नमामि ---सजोग केवलिनो आहार निहार विवज्जिओ सुद्धो, केवल ज्ञान उवन्नो अरहंतोतं सुद्ध----ॐ शान्ति ---- ॐ शान्ति---- केवली सुद्धो। देखिये---- अभी एकदम आँख नहीं खोलना----पहले पद्मासन खोलें, (ज्ञानसमुच्चय सार-७०१) स्वस्थ होकर बैठे-शांत-मौन रहें - मंत्र का स्मरण करें ---- अब धीर-धीर चारों तरफ जय जयकार मची है----इन्द्र आदि देवता चले आ रहे हैं आँख खोलें। हैं,समवशरण की रचना हो रही है----वह देखो,मध्य में कमलासन पर अरिहन्त र जय बोलो-श्री गुरू महाराज-तारण स्वामी की जय----|| सर्वज्ञ केवलज्ञानी परमात्मा मैं स्वयं बैठा हूँ, ---- अपने शुद्ध स्वभाव में लीन, यह पदस्थ ध्यान की विधि का प्रयोग है। इसे क्रम-क्रम से अभ्यास करने से समस्त घातिया कर्मों से मुक्त केवलज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा---- मैं स्वयं बैठाहूँ-- अपूर्व आनंद आता है। लगन और रुचि होना चाहिये। जीवन को मोड़ने, विकल्प -- देखो अपने को इसी रूप में देखो---- यह आत्मा ही परमात्मा है, में स्वयं जालों से बचने. आत्मीय आनंद में रहने के लिये यह एक माध्यम है। इस ध्यान को सर्वज्ञ परमात्मा हूँ---- परमानंद संदिस्टा मुक्ति स्थानेषु तिस्टते, सो अहं देह करने से तीनों कज्ञान मिथ्यात्व आदि विला जाते हैं। शल्यें पैदा ही नहीं होती और मध्येषु सर्वन्यं सास्वतं धुवं----देखो इसी दशा में अपने को देखो----वाह-6 मिथ्या माया जगत का प्रपंच भी विला जाता है। आत्मा की रुचि जागती है, धर्म का वाह जय हो जय हो ---- समवशरण की रचना हो गई ---- सौ इन्द्र सेवा में ! उत्साह बढ़ता है, बहुमान आता है। जीवन में सरलता सहजता आती है, आनंद की खडे हैं, जय जयकार मचा रहे हैं----भवणालय चालीसा व्यंतर देवाण होति दशा रहती है। यह पदस्थ ध्यान का अभ्यास तो प्रत्येक जीव को करना चाहिये। बत्तीसा.कम्पामर चौबीसा चंदो सूरोणरो तिरियो। बारह कोठों में सभी जीव,देव, इसी के माध्यम से सम्यक्त्व भी होता है और मुक्ति भी मिलती है। अभ्यास साधना मनुष्य,तिर्यंच बैठे हैं ---- भगवान की दिव्य ध्वनि खिर रही है ---- सब जीवs सामूहिक रूप से की जावे तो विशेष लाभ मिलता है। निर्देशन करने वाला एक व्यक्ति धर्म उपदेश सुन रहे हैं, जय जयकार मचा रहे हैं। देखो देखो वह कितने भव्य जीव होवे तो बहुत उपयोग लगता है। मनुष्य साधु होते जा रहे हैं ---- अपने आत्म कल्याण के लिये पाप परिग्रह का आगे पिंडस्थ ध्यान का वर्णन करते हैंत्याग कर रहे हैं---- भगवान की दिव्य ध्वनि खिर रही है ---- इसी रूप में पिंडस्तं न्यान पिंडस्य,स्वात्मचिंता सदा बुधैः। अपने को देखना है ---- मैं स्वयं सर्वज्ञ परमात्मा हूँ---- देखो देखो वह चारों तरफ जय जयकार मची है ---- देखते रहो अपने को इसी दशा में देखते रहो --.. निरोधनं असत्य भावस्य, उत्पाचं सास्वतं पदं ।। १८३॥
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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