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________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-१२४-१२४ P OON शुद्धात्मा मैं स्वयं हूँ ऐसा श्रद्धान करना ही मुक्ति का मार्ग है (लोकालोकं च लोकितं) शिकार खेलने वाले शिकारी (पारधी) का स्वरूप बताया जा रहा है कि संसार में जो जो लोकालोक को देखने-जानने वाला है, ऐसा ज्ञानमयी ज्ञायक स्वभावी मैं हूँ ऐसा शिकार खेलते हैं, जंगली पशु पक्षियों को जाल में फँसाते हैं, मारते हैं वे शिकारी श्रद्धान ही मुक्ति का मार्ग है (पंथ भ्रस्ट अचेतस्य) इसके विपरीत जो पंथ भ्रष्ट अर्थात् , दुष्ट स्वभाव के होते हैं। आर्त-रौद्र ध्यानों में लगे रहते हैं, हिंसा में आनंद मानते मुक्तिमार्ग के विपरीत अज्ञानी कुगुरु आदि हैं जो अधर्म को अर्थात् पाप-पुण्य को, हैं। इससे नरक निगोद आदि दुर्गतियों में जाते हैं और महान कष्ट भोगते हैं तथा जो रागादि बाह्य क्रियाकांड को धर्म कहते हैं तथा अचेतन मूर्तिपूजा को धर्म बताते हैं जीव उनके जाल में फँस जाते हैं उन्हें इस जन्म में ही मरना पड़ता है परंतु यहाँ (विस्वासं जन्म जन्मयं) इनका विश्वास करने से जन्म-जन्मों के लिये संसार में तारण स्वामी कहते हैं कि जिन्होंने बाहर से व्यसनों का त्याग कर दिया है, अणुव्रती रुलना पड़ता है यह बड़े खतरनाक पारधी हैं। & त्यागी, महाव्रती साधु हो गये परन्तु जिनके दुष्ट स्वभाव हैं,जो आर्त-रौद्र ध्यानों में (पारधी पासि जन्मस्य) शिकारीतो एक जन्म की ही फाँसी है (अधर्मं पासि लगे हैं। जो हिंसादि पापों में आनंद मानते हैं और धर्म के नाम पर भोले जीवों को अनंतयं) किन्तु अधर्म अनन्त जन्मों की फाँसी है (जन्म जन्मं च दुस्टं च) अधर्म अधर्म अज्ञान मिथ्यात्व में फँसाते हैं। वे शिकारी बड़े खतरनाक हैं क्योंकि मुक्ति का और कुगुरु रूपी दुष्टों के जाल में फंसने पर जन्म-जन्म में (प्राप्तं दुष दारुनं) मार्ग तो तत्व श्रद्धान करना है, अपने शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति, मैं अरिहंत सिद्ध दारुण दु:ख भोगना पड़ते हैं। के समान केवलज्ञान का धारी लोकालोक को देखने जानने वाला ज्ञानस्वभावी (जिन लिंगीतत्व वेदंते) मोक्षमार्गी निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधुतोशुद्धात्म स्वरूप भगवान आत्मा हूँ, ऐसा श्रद्धान ज्ञान और आचरण ही सम्यदर्शन ज्ञान निज तत्व का अनुभव करते हैं (सुद्ध तत्व प्रकासकं) और उसी शुद्ध तत्व काचारित्राणि मोक्षमार्गः है। इसके विपरीत जो पंथ भ्रष्ट अर्थात् मुक्ति मार्ग के प्रकाश अर्थात् शुद्धात्म तत्व की ही चर्चा उसी का उपदेश करते हैं (कुलिंगी तत्व विपरीत अज्ञानी कुगुरु हैं, जो पाप-पुण्य को धर्म बताते हैं। राग-द्वेषादि बाहरी लोपंते) कुलिंगी अर्थात् जो बाहर से तो दिगंबर साधु हो गए हैं परन्तु जिन्हें अपने क्रियाकांड को धर्म बतलाते हैं। इनका विश्वास करने पर जन्म-जन्मों तक संसार में आत्म तत्व की खबर ही नहीं है, मात्र पेट पूजा,देवपूजा को ही धर्म मानते हैं, वह रूलना पड़ता है। तत्व का लोप करके (परपंचं धर्म उच्यते) संसारी प्रपंच बाहरी क्रियाकांड को धर्म शिकारी तो एक ही जन्म की फाँसी है, जो जीव इसके चंगुल में फंसते हैं, उन्हें कहते हैं। इसी जन्म में अपने प्राण गंवाने पड़ते हैं; परन्तु यह अधर्म अनंत जन्मों की फाँसी है। (ते लिंगी मूढ दिस्टीच) ऐसे मिथ्यादृष्टि भेषधारियों (कुलिंगी विस्वासं कृतं) यह अधर्म विकथा व्यसन और कुगुरु रूपी दुष्टों के जाल में फंसने पर जन्म-जन्म कलिंगियों का विश्वास करना (दुरबुद्धि पासि बंधते) अपनी दुर्बुद्धि से उनके बंधन मेंदारुण दु:ख भोगना पड़ते हैं। मोक्षमार्गी निर्ग्रन्थ दिगंबर साधुतो शुद्धात्म स्वरूप में बंधना है अर्थात् दुर्बुद्धि मूढ अज्ञानी प्राणी इनके जाल में फंस जाते हैं (संसारे दुष, निज तत्व का अनुभव करते हैं तथा इसी शुद्ध तत्व शुद्धात्म स्वरूप का उपदेश दारुनं) जिससे संसार में दारुण दु:ख भोगना पड़ते हैं। देते हैं। धर्म का यथार्थ स्वरूप बताते हैं जो कुलिंगी अर्थात् बाहर से तो (पारधी पासि मुक्तस्य) पारधी के बंधन से मुक्त होना है अर्थात् कुगुरु के नग्न दिगंबर साधु हो गए हैं परन्तु जिन्हें अपने आत्म तत्व की खबर ही नहीं है। मात्र जाल से छूटना है तो (जिन उक्तं साधं धुवं) जिनेन्द्र देव के कहे अनुसार अपने ध्रुव पेटपूजा, देवपूजा, धनसंग्रह मंदिर मठ बनवाना आदि को ही धर्म मानते हैं, वह तत्व एतत्व शुद्धात्म स्वरूप की श्रद्धा साधना करो (सुद्ध तत्वं च सार्धं च) शुद्ध तत्व और कालोप करके संसारी प्रपंच बाहरी क्रियाकांड हाथ के आटे-पानी शुद्धि के भोजन, सच्चे देव गुरू धर्म की श्रद्धा है तो (अप्प सद्भाव चिन्हितं) अपने आत्म स्वभाव को बाहरी भेष को ही धर्म कहते हैं। ऐसे मिथ्यादृष्टि भेषधारी कुलिंगियों का विश्वास पहिचानो कि मैं एक अखंड अविनाशी धुवतत्व सिद्ध स्वरूपी चैतन्य लक्षण परमब्रह्म करना इन्हें गुरू मानना या इनके वचनों पर विश्वास करना अपनी दुर्बुद्धि से फाँसीX परमात्मा हूँ तो यह अधर्म और कुगुरु रूपी शिकारी के जाल से छूट जाओगे। में बंधना है। जैसे-शिकारी के जाल में अज्ञानी पशुपक्षी फँस जाते हैं वैसे ही अपनी विशेषार्थ- यहाँ अधर्म के अंतर्गत व्यसनों का प्रकरण चल रहा है, जिसमें अज्ञानता दुर्बुद्धि से जो जीव इनके जाल में फँस जाते हैं, उन्हें संसार में दारुण दुःख
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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