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________________ 04 श्री श्रावकाचार जी गाथा-११८-१२. OOO घर वासउ मा जाणि जिय दुक्किय वासउ एहु। आरक्तं) वेश्या में आसक्त होना और रमण करना है (नरयंजस्य सद्भाव) नरकगामी पासु कयंते मंडियउ अविचलु णिस्संदेहु ॥१४॥ जीव के जैसे भाव होते हैं (ते भाव विस्वा दिस्टितं) वैसे ही भाव वेश्यागामी के दिखाई । देहु वि जित्थु ण अप्पणउ तहिं अप्पणउ कि अण्णु। देते हैं। पर कारणि मण गुरुव तुहुँ सिव संगमु अवगण्णु ॥ १५ ॥ विशेषार्थ- यहाँ वेश्यागमन दोष का वर्णन चल रहा है, यह भी व्यसन है। ७ (परमात्म प्रकाश) : जिस विषय को भोगने के, करने के बार-बार भाव होते हैं और जो आकलित करते । काल भी अनादि है, जीव भी अनादि है और संसार भी अनादि अनंत है हैं वह व्यसन है। वेश्या, शरीर को बेचने का धंधा करने वाली स्त्रियों को कहते हैं। लेकिन इस जीव ने जिनराज स्वामी और सम्यक्त्व यह दो कभी नहीं पाये। यह मोह इनमें जाति-पांति का, अपने पराये का कोई विचार नहीं होता। यह तो मात्र धन के के चक्कर में ऐसा चकरा रहा है कि जो अपना है नहीं उसे अपना मान रहा है और 1 लिये ही यह धन्धा करती हैं। विषय लम्पटी. कामी जीव अपने घर, परिवार, पत्नी जो अपना निज शुद्ध स्वभाव चैतन्य लक्षण शुद्धात्म स्वरूप है उसे भूला हुआ है। आदि का विचार न करते हुए इनके जाल में फंस जाते हैं। जिससे अपना धन, धर्म हे जीव ! इस गृहवास को अपना मत जान। यह पाप का निवास स्थान दु:खों और जीवन सभी बरबाद कर देते हैं। यहाँ बदनाम होते हैं और परभव में नरक का घर है। यमराज (काल) ने अज्ञानी जीवों को बांधने के लिये यह अनेक फांसों से सास जाते हैं। मंडित बहुत मजबूत बंदी खाना बनाया है इसमें संदेह नहीं है। श्रीमद् जिन तारण स्वामी यहां वेश्यागामी उसे कह रहे हैं, जो जीव हमेशा जहाँ देह भी अपना नहीं, उसमें अन्य क्या अपना हो सकता है। इस कारण कज्ञान में ही रम रहा है। जिसे अपने सत्स्वरूप, सम्यज्ञान का पता ही नहीं है, जो तू मोक्ष का कारण निज शुद्धात्म तत्व को छोड़कर यह शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, वैभव कज्ञानों में ही आसक्त लवलीन है वह वेश्यागामी है; क्योंकि वह अपने ज्ञान स्वरूपी आदि में ममत्व मत कर। यह घर परिवार, संसार, समाज का व्यामोह छोड़ा अपने S आत्मा को भला है। कज्ञानमय संसार शरीर विषय भोगों में लगा है जिससे धन धर्म शुद्धात्म तत्व की भावना कर इसी से भला होगा। 5 और जीवन सब बरबाद हो रहा है तथा जैसे भाव नरकगामी जीव के होते, चलते हैं यह मोह की मदिरा पिये हुए ही यह जीव अनादि से संसार में भ्रमण कर रहा 3 वैसे ही भावों में यह जुड़ा है, उन्हें ही देख रहा है, उनमें ही आसक्त है, परभावों में है और जब तक मोह का बन्धन स्त्री, पुत्र, परिवार, धन, वैभव, मकान आदि का आसक्त वेश्यागामी ही है, वह भी नरक जायेगा। बाहर से वेश्यागमन का जिस सम्बन्ध नहीं छोड़ेगा, भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति नहीं करेगा तब तक ऐसे व्रती-अवतीने त्याग कर दिया परन्त जो कज्ञान में ही रमण कर रहा है, जिसे अपने ही संसार में रुलता रहेगा। बिना धर्म के श्रद्धान, निजशुद्धात्मानुभूति के बगैर बाहर सत्स्वरूप निज शद्धात्मा का श्रद्धान ज्ञान नहीं हुआ है, निज स्वभाव में रमण नहीं में कितना ही व्रत, नियम, संयम धारण किया जावे, मुक्ति होने वाली नहीं है। मद्य. त, नियम, सयम धारण किया जाय, मुक्ति हान वाला नहा हा मद्य कर रहा है, परभावों में ही रत है, वह वेश्यागामी ही है और नरक जायेगा; क्योंकि का त्याग करना है तो अपने मोह ममत्व का त्याग करो तभी निराकुल सुख शान्ति में वह कज्ञान के कारण अशभ निकष्ट भावों में रत है इसलिये वेश्यागमन का त्याग रह सकते हो; क्योंकि व्यसनों के सेवन से आकुलता होती है, विकल्प चलते हैं, करना है. तो कज्ञानों का त्याग करें, सम्यक्ज्ञानी बनें। जीव निरन्तर चिन्तित दु:खी परेशान रहता है। इसी क्रम में शिकार खेलना व्यसन के दोषों का वर्णन करते हैंइसी क्रम में आगे वेश्यागमन व्यसन के दोषों का वर्णन करते हैं पारधी दुस्ट सद्भाव, रौद्र ध्यानं च संजुतं । विस्वा आसक्त आरक्त, कुन्यानं रमते सदा। आरति आरक्तं जेन, ते पारधी च संजुतं ॥११६॥ नरयं जस्य सद्धावं, ते भाव विस्वा दिस्टितं ॥११८॥ मान्यते दुस्ट सद्भाव, वचनं दुस्ट रतो सदा। अन्वयार्थ-(कुन्यानं रमते सदा) हमेशा कुज्ञान में रमना ही (विस्वा आसक्त चिंतनं दुस्ट आनंद,ते पारधी हिंसा नंदितं ॥ १२०॥
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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