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________________ के अनुभव के आगे चक्रवर्ती का राज्य और इन्द्र के भोग भी तुच्छ हैं। व्यवहार रत्नत्रय भी शुभ राग है, निमित्त मात्र है, इस को भिन्न जानकर शुद्धात्मा को उपादेय रूप से निरंतर अंगीकार करना ही द्वादशांग रूप जिनवाणी का सार है। त्रिकाली चिदानन्द शुद्धात्मा का आलम्बन ही मोक्ष का कारण है। त्रिकाल ध्रुवशक्ति, कारण परमात्मा ही एक मात्र उपादेय है। जो पराश्रित राग-व-व्यवहार रत्नत्रय को वीतरागी धर्म या मुक्ति का कारण मानते हैं, उन्हें धर्म नहीं वरन्, मिथ्यात्व का आश्रय होता है। मिथ्यात्व और कुज्ञान का त्याग कर निज स्वभाव की साधना करने में ही, आत्मा की भलाई और मनुष्य भव की सार्थकता है। लोगों का भय त्यागकर, शिथिलता छोड़कर-स्वयं दृढ़ पुरुषार्थ करना यही लोकाग्र में जाने का उपाय है। "लोग क्या कहेंगे" ऐसा देखने सोचने से कभी भी अपना आत्महित धर्म साधना नहीं हो सकती। हे भव्य जीवो ! यदि तुम्हें विभाव से छूटकर मुक्त दशा प्राप्त करनी है तो चैतन्य के अभेद शुद्ध स्वरूप को ग्रहण करो।शुद्ध भाव सहित शुद्ध दृष्टि प्रगट करो। जिसने आत्मा को पहिचाना है, अनुभव किया है, वह अपने आत्मज्ञान के बल सेशुद्धात्म स्वरूप में लीन होता हुआ परमात्मा बना है। अपने को भी उस परमात्म पद को पाना है, तो उसका एकमात्र उपाय यही है कि यह मिथ्या मान्यता और कुज्ञान को छोड़कर, अपने शुद्ध स्वभाव शुद्धात्मा का निश्चय श्रद्धान ज्ञान कर तद्रूपरहे। यही जिनशासन में मुक्ति का मार्ग, सच्चे देव की सच्ची पूजा का विधि विधान है, जिससे स्वयं आत्मा से परमात्मा देवत्व पद प्रगट होता है। इस प्रकार ज्ञान मार्ग के साधक जीवों को सच्चे देव, निज शुद्धात्मा की सच्ची पूजा का विधि विधान का स्वरुप बताया, जिसे समझ कर हम भी उस मार्ग पर चलें, मिथ्या मान्यताओं को छोड़कर धर्म के सत्स्वरूप को स्वीकार गाथा (३२) एतत् संमिक्त पूजस्या, पूजा पूज्य समाचरेत् । मुक्ति श्रियं पथं सुद्धं, विवहार निश्चय सास्वतं॥ अन्वयार्थ - (एतत्) इस प्रकार (संमिक्त पूजस्या) सच्ची पूजा का स्वरूप, शुद्ध पूजा की विधि (पूजा) पूजन-आराधना वंदना स्तुति (पूज्य) पूजा योग्य जिसे हम अपना इष्ट आराध्यदेव भगवान मानते हैं (समाचरेत्) उसके समान आचरण करना वैसा ही होना (मुक्ति श्रियं) श्रेष्ठ मुक्ति, मुक्ति श्री (पथं सुद्धं) शुद्ध मार्ग, शुद्ध पंथ (विवहार) व्यवहार नय (निश्चय) निश्चयनय (सास्वतं) है-अनादि निधन है। विशेषार्थ- इस प्रकार सच्ची पूजा का स्वरूप, पूज्य के समान आचरण ही सच्ची पूजा है, अर्थात् पूजक का पूज्य के समान ही शुद्ध अपना शुद्धात्मा चैतन्य स्वरूप है। ऐसा जानकर निज शुद्धात्मा में लीन होकर, महिमा मयी देवत्व पद सिद्ध पद प्राप्त करना, यही देवपूजा है। मुक्ति श्री को प्राप्त करने का यही अनेकान्त रूप निश्चय व्यवहार से शाश्वत मुक्ति का मार्ग है। इसी विशुद्ध पथ पर चलने से मुक्ति की प्राप्ति होती है। सद्गुरु तारण स्वामी कहते हैं कि इस प्रकार सच्ची पूजा का स्वरूपपूज्य के समान आचरण हीसच्ची देवपूजा है। जिसका संक्षेप में वर्णन किया कि जो जीव सच्चे देव, गुरू, धर्म के श्रद्धान सहित भेदज्ञान पूर्वक शुद्ध निश्चय से अपने स्वरूप का अनुभूति युत श्रद्धान ज्ञान करते हैं कि मैं ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ, वे ज्ञानी पंडित हैं। भगवान जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि मोक्ष का मार्ग तो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, स्वरूप है। वह सम्यग्दर्शनादि शुद्ध भाव रूप मोक्ष मार्ग अन्तर्मुख प्रयत्न द्वारा सधता है। इसमें अन्तर शोधन करना पड़ता है। बाहर तो जो तत समय की योग्यता, पर्याय की पात्रता होती है उस अनुसार परिणमनचलता है। ज्ञानी पंडित ही देव पूजा करने का अधिकारी होता है, अर्थात जो सम्यग्दृष्टि ज्ञानी है, वही सच्ची देव पूजा कर अपने में देवत्व पद प्रगट कर करें। सद्गुरु तारण-स्वामी पंडित पूजा ग्रंथ का उपसंहार करते हुए अन्तिम गाथा कहते हैं [89] [90]
SR No.009721
Book TitlePundit Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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