SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अखंड परम पारिणामिक भाव का आलम्बन है। जिसने आत्मा को पहिचाना है, अनुभव किया है उसको आत्मा ही सदा समीप वर्तता है। प्रत्येक समय प्रत्येक पर्याय में शुद्धात्मा ही मुख्य रहता है। विविध शुभ भाव आयें - तब भी कहीं शुद्धात्मा विस्मृत नहीं होता-वे भाव मुख्यता नहीं पाते। ज्ञानी की दृष्टि तो संसार से छूटने की है अतः वह राग रहित निवृत्त स्वभाव की मुख्य भावना व आदर में सावधानी से प्रवृत्त रहता है। वह हमेशा शुद्धात्म - स्वरुपकी भक्ति भावना करता है, और उसी रस में डूबा भजन गाता - आनन्द में नृत्य करता है। __-भजन-आरती:ॐ जय आतम देवा, प्रभु शुद्धातम देवा। तम्हरे मनन करे से निशदिन. मिटते दख छेवा॥ अगम अगोचर परम ब्रह्म तुम, शिवपुर के वासी-प्रभु-२ शुद्ध बुद्ध हो नित्य निरंजन, शाश्वत अविनाशी....ॐ जय.... विष्णु बुद्ध महावीर प्रभु तुम, रत्नत्रय धारी - प्रभु २ वीतराग सर्वज्ञ हितकर,जग के सुख कारी....ॐ जय.... ज्ञानानन्द स्वभावी हो तुम, निर्विकल्प ज्ञाता-प्रभु-२ तारण - तरण जिनेश्वर, परमानन्द दाता....ॐ जय आतम ... अन्वयार्थ - (पूजतं) पूजा का स्वरुप (च) और (जिनं उक्तं) जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है (पंडितो) पंडित ज्ञानी जन( पूजतो) सच्ची पूजा करते हैं (सदा) हमेशा सदैव (पूजतं) पूजा का स्वरुप (शुद्ध सार्धं) शुद्धात्म स्वरुप की साधना करना (च) और (मुक्ति गमनं) मोक्ष जाने - मोक्ष मार्ग - मुक्त होने (च) और (कारनं) कारण है। विशेषार्थ - श्री जिनेन्द्र परमात्मा ने पूजा का जैसा स्वरुप कहा है पंडित ज्ञानी जन - हमेशा वैसी ही शुद्ध पूजा करते हैं। पूजा का स्वरुप निज शुद्धात्म स्वरुपकी अनुभूति ज्ञान और उसी मय लीन रहना है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः॥ यही मुक्त होने सिद्ध परम पद पाने का एकमात्र शुद्ध कारण है।ज्ञानी साधक और साधु निज शुद्धात्म स्वरुप की साधना करते हैं। अपने शुद्ध चिद्रूपी ध्रुव स्वभाव को देखते अनुभव करते हुये -निज स्वभाव में लीन होकर सिद्ध पद प्राप्त करते हैं। यही शुद्ध पूजा मुक्ति गमन का कारण है। ज्ञानी धर्मात्मा को भगवान की पूजा- भक्ति आदि के भाव आते हैं। परन्तु उसकी दृष्टि राग रहित ज्ञायक स्वरुप- निजशुद्धात्मा पर पड़ी है। उसे जिनेन्द्र परमात्मा की वाणी का सत्य श्रद्वान है, कि अन्तर में निज चैतन्य स्वरुप भगवान आत्मा विराजमान है। इसी का श्रद्वान - ज्ञान - आराधन तद्पलीनता ही धर्म, धर्म मार्ग और मुक्ति है। अन्तर में शुद्ध चिदानन्द स्वरुपको जानकर उसे प्रगट किये बिना जन्म - मरण का अन्त नहीं आयेगा । आत्मा का स्वभाव त्रैकालिक परम पारिणामिक भावरूप है, उस स्वभाव को पकड़ने, उसी का स्मरण -ध्यान आराधन करने से ही मुक्ति मिलती है। हे मोक्ष के अभिलाषी ! मोक्ष मार्ग तो सम्यक्वर्शन, ज्ञान, चारित्र, स्वरुप है । यह सम्यग्दर्शनादि शुद्ध भाव रुप मोक्ष मार्ग अन्तर्मुख प्रयत्न द्वारा सधता है। ऐसा भगवान का उपदेश है, भगवान ने स्वयं प्रयत्न द्वारा मोक्ष मार्ग साधा है और उपदेश में भी यही कहा है कि मोक्ष का मार्ग प्रयत्न साध्य है, इसलिये तू सम्यग्दर्शनादि शुद्ध भावों को ही मोक्ष का पंथ जानकर सर्व उद्यम द्वारा उसे अंगीकार कर, हे भाई! सम्यग्दर्शनादि शुद्ध भावों से रहित ऐसे द्रव्य लिंग से तुझे [62] ऐसी अपूर्व भक्ति और आनन्द में नृत्य करते - करते अपने में समाधिस्थ लीन हो जाता है। भगवान जिसके हृदय में विराजते हैं, उसका चैतन्य शरीरराग-द्वेष रुपी जंगसेरहित हो जाता है। पाप-विषय-कषाय की प्रवृत्ति अपने आपछूट जाती है। वह निरावरण अखंड एक - अविनश्वरशुद्ध - परम पारिणामिक भावलक्षण निज परमात्मस्वरुपका ध्यान करता है और इसकी तन्मयता ही सच्ची देव पूजा है। प्रश्न - ऐसे ज्ञान - ध्यान - भक्ति भाव पूजा से क्या लाभ मिलता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं.. ........ गाथा (२३) पूजतं च जिनं उक्तं, पंडितो पूजतो सदा। पूजतं सुद्ध सार्ध च, मुक्ति गमनं च कारन ।।२३।। [61]
SR No.009721
Book TitlePundit Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy