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________________ किया जा रहा है वह उत्पन्न हो जाता है, जहां ॐकार स्वरूप का निर्विकल्प अनुभव मात्र रहता है। विंद स्वभाव में स्थित ऐसे सिद्ध शुद्ध को नमस्कार करता हूं। यहां भाव नमस्कार की प्रधानता है। सिद्ध के समान अपनी आत्मा को शुद्ध रूपमय अनुभवन करना यही सिद्धों की भाव वंदना है। ॐ में जो पांच परमेष्ठी गर्भित हैं उनके भीतर जो निश्चयनय से शुद्धात्मपना है वही शुद्धात्मपना मेरे में है, ऐसा अनुभव करना यही 'ॐ नम:' का अर्थ है। ॐ नम: का अभिप्राय स्पष्ट करने के पश्चात् 'सिद्धम्' पद का अर्थ अभिप्राय कहते हैं सिद्ध सिद्धि सवर्थ, सिद्ध सर्वच निम्मलं विमलं। दर्सन मोहंध विमुक्कं, सिद्धं सुद्धं समायरहि ॥ ७०९॥ अर्थ- सत् (अस्तित्व) मात्र ही प्रयोजनीय है, ऐसी सिद्धि की प्राप्ति ही सिद्ध पद है, सिद्ध परमात्मा मोक्ष पुरुषार्थ को सिद्ध कर चुके हैं, यह सिद्ध पद शुद्ध निर्मल विमल है, परम आनंद स्वरूप है, दर्शन मोहनीय रूप मिथ्यात्व अज्ञान के तिमिर से सर्वथा रहित है, ऐसे शुद्ध सिद्ध पद में आचरण करो। सिद्ध करने योग्य एक मात्र मोक्ष पुरुषार्थ है, जिसकी सिद्धि होने पर यह जीव कृत-कृत्य और पूर्ण हो जाता है। जिस भव्य जीव ने मोक्ष पुरुषार्थ को सिद्ध कर लिया है, उन्हें सिद्ध परमेष्ठी कहते हैं, वे परम शुद्ध वीतरागी, शुद्धात्मा, सिद्धात्मा हैं। उनके समान अपने आत्मा को जानना, अनुभव करना यही धर्म है, जो शुद्ध स्वभाव के आश्रय से होता है। धम्मच चेयनत्वं चेतन लभ्यनेहि संजतं । अचेत असत्य विमुक्क,धम्म संसार मुक्ति सिव पंथ ॥ ७१०॥ अर्थ- आत्मा का चेतनत्व गुण ही धर्म है अर्थात् आत्मा को आत्मा रूप अनुभव करना, चैतन्य लक्षण से संयुक्त होना यही धर्म है, जहां न तो अज्ञान है, न कोई मिथ्या भाव है। शरीरादि अचेतन और रागादि असत् परिणामों से रहित निज आत्म स्वभाव धर्म है, जो संसार से छुड़ाने वाला है तथा यही मोक्ष का मार्ग है। वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं। आचार्य श्री जिन तारण स्वामी ने पंडित पूजा ग्रंथ की गाथा में कहा है- चेतना लक्षणो धर्मो आत्मा का चेतना लक्षण स्वभाव ही धर्म है। जब आत्मा कर्म चेतना तथा कर्मफल चेतना से रहित होकर ज्ञान चेतना का अनुभव करता है, वही धर्म है। ऐसे आत्मानुभव रूप धर्म से ही सिद्धि,मुक्ति का मार्ग बनता है और परमात्म पद की प्राप्ति होती है। आत्मा स्वभाव से सिद्ध परमात्मा के समान है, ऐसा अनुभव करना ही 'ॐ नम: सिद्धम्' का सार है। ॐकार स्वरूप सिद्ध स्वभाव को नमस्कार हो, इस भाव नमस्कार रूप अनुभव से साधक का मोक्षमार्ग प्रशस्त होता है, इस अभिप्राय को व्यक्त करते हुए आचार्य श्री जिन तारण स्वामी कहते हैं पंच अभ्यर उत्पन्न, पंचमन्यानेन समय संजुत्ता रागादि मोह मुक्त, संसारे तरंति सुद्धसभावं ॥ ११॥ अर्थ-पांच अक्षर 'ॐ नम: सिद्धम्' मंत्र के वाच्य परम शुद्ध सिद्धात्मा के अनुभव से उत्पन्न साम्यभाव सहित यह भव्य जीव राग-द्वेषादि भावों से छूटकर पंचम केवलज्ञान को प्राप्त करता है तथा अपने शुद्धात्म स्वभाव में लीन रहता हुआ संसार से पार उतर जाता है। 'ॐ नम: सिद्धम्' मंत्र के जाप और ध्यान करने से, सिद्ध भगवान को भाव नमस्कार करने से और उनके समान सिद्ध स्वरूपी निज शुद्धात्मा का अनुभव करने से धर्म ध्यान होता है, पश्चात् साधु दशा में शुक्ल ध्यान होता है, जिससे ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों का क्षय हो जाता है और पूर्ण केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। समस्त राग-द्वेष मोह आदि विकारों का अभाव होने से परम आनंद स्वरूप में लीनता रहती है। शेष चार अघातिया कर्मों का भी क्षय होने पर आत्मा संसार से पार हो जाता है अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ___ 'ओ ना मा सी धम' जिसका विकृत रूप बना, ऐसे 'ॐ नम: सिद्धम्' मंत्र का श्री जिन तारण स्वामी ने आध्यात्मिक स्वरूप बतलाया। इस गाथा में सद्गुरु यह कहना चाहते हैं कि आत्मार्थी जिज्ञासु मोक्षाभिलाषी जीव को इस पांच अक्षरी मंत्र के द्वारा सिद्ध परमात्मा के स्वरूप का विचार कर अपने आत्मा को सिद्ध स्वरूपमय ध्यान करना चाहिए। 'ॐ नम: सिद्धम्' का अर्थ अभिप्राय स्पष्ट करने के पश्चात् आचार्य श्री जिन तारण स्वामी अ, आ, इ, ई, उ,ऊ आदि चौदह स्वरों का आध्यात्मिक अर्थ और अभिप्राय स्पष्ट करते हैं - अ अप्य सहावं सुद्ध, अप्पा सुखप्प सहइ सुद्ध। संसार भाव मुक्क, अप्पा परमप्पयं च संसुद्ध ॥ ७१२॥ अर्थ- अपना आत्म स्वभाव शुद्ध है, निश्चय से जो जीव अपने आत्मा को शुद्धात्मा रूप श्रद्धान में लेता है, वह आत्मा रागादि रूप संसार भावों से छूटकर १३३ १३२
SR No.009720
Book TitleOm Namo Siddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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