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________________ में जो प्रवर्तता है वह भव्य जीव है. मोक्ष पाने के योग्य है। १०६ यहां कोई कहे कि अरिहंत द्वारा भाषित और गणधर देवों से गूंथा हुआ सूत्र तो द्वादशांग रूप है, वह तो इस काल में दिखता नहीं है तब परमार्थ रूप मोक्षमार्ग कैसे सधे? इसके समाधान के लिए ही उपरोक्त गाथा सूत्र है कि अरिहंत भाषित गणधर रचित सूत्र में जो उपदेश है उसको आचार्यों की परंपरा से जो जानते हैं तथा उसको शब्द और अर्थ के द्वारा जानकर मोक्षमार्ग को साधते हैं, वह भव्य हैं तथा मोक्ष को प्राप्त करने योग्य हैं। आगे कहते हैं कि जिनेन्द्र भाषित सूत्र दो प्रकार के भेद वाला है उसको जानकर योगीजन सुखी रहते हैं - जं सुत्त जिण उत्तं ववहारे तह य जाण परमत्थो । तंजाणिऊण जोई लहइ सुहं खवइ मल पुंजं ॥ अर्थ- जो जिन भाषित सूत्र है वह व्यवहार रूप तथा परमार्थ रूप है, उसको योगीश्वर जानकर सुख पाते हैं और मलपुंज अर्थात् द्रव्यकर्म,भावकर्म, नो कर्म का क्षेपण करते हैं । १०७ जिन सूत्र को व्यवहार और परमार्थ रूप यथार्थतया जानकर मुनि योगीजन कर्मों का नाश करके अविनाशी सुख रूप मोक्ष को प्राप्त करते हैं। परमार्थ अर्थात् निश्चय और व्यवहार, इनका संक्षेप में स्वरुप इस प्रकार है-"जिन आगम की व्याख्या चार अनुयोग रूप शास्त्रों में दो प्रकार से सिद्ध है- एक आगम रूप, दूसरी अध्यात्म रूप। वहां सामान्य विशेष रूप से पदार्थों का निरूपण किया गया। है वह आगम रूप है परंतु जहां एक आत्मा ही के आश्रय निरूपण किया गया है। वह अध्यात्म रूप है। जिनवाणी का द्वादशांग रूप जो विस्तार है उस सबका उद्देश्य एक ही है- अपने आत्म स्वरूप को जानना, स्व-पर का यथार्थ निर्णय करना। आचार्य श्री जिन तारण स्वामी ने इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है - पूर्व पूर्व उक्तं च,बादशांग समुच्चय। ममात्मा अंग सार्ध च,आत्मनं परमात्मनं ॥ अर्थ-जो द्वादशांग वाणी का और पूर्वो का वर्णन किया है, उनमें प्रत्येक पूर्व और संपूर्ण जिनवाणी का सार यही है कि यद्यपि मेरी आत्मा शरीर सहित है तथापि निश्चय से यह आत्मा ही परमात्मा है यही जानना योग्य है। १०८ इसी बात को अन्यत्र भी कहा गया है जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्यः इत्यसो तत्व संग्रहः । यदन्यदुच्यते किंचित् सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः॥ अर्थ-जीव भिन्न है और पुद्गल भिन्न है, तत्त्व का सार तो इतना ही है, इसके अलावा और जो कुछ कहा जाता है, विवेचन किया जाता है वह सब इसका ही विस्तार है। १०९ इसी बात को इस रूप में स्मरण किया जाता है - जीव जुदा पुद्गल जुदा, यही तत्व का सार। और कछु व्याख्यान सो, इसका ही विस्तार ॥ 'आत्मानुशासन' नामक ग्रंथ में अपने अर्थात् स्वयं के ऊपर शासन करने का उत्तम उपाय बताया है । वह उपाय है- आत्मलीनता । यह ग्रंथ शुद्ध रूप से आध्यात्मिक ग्रंथ है फिर भी उसमें अक्षर समाम्नाय की मार्मिक चर्चा की गई है। श्रीगुणभद्राचार्य उस ग्रंथ के रचयिता हैं, उन्होंने लिखा है कि अक्षर समाम्नाय का चरम प्रयोजन अर्थात् अंतिम लक्ष्य परमात्म स्वरूप को प्राप्त करना है। १५० द्रव्यश्रुत का आधार लेकर भावश्रुत को प्रगटा लेना यही जिनवाणी का प्रयोजन है। जिनवाणी के इस द्रव्य और भावश्रुत रूप को कल्याणमंदिर स्तोत्र में श्री सिद्धसेन दिवाकर ने परमात्मा की स्तुति करते हुए बहुत कुशलता से स्पष्ट किया है, ईश की वंदना करते हुए उन्होंने लिखा है- "कि वाक्षर प्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश।"अर्थात् अक्षर प्रकृति वाले होते हुए भी हे ईश! तुम अलिपि भी हो और लिपि भी हो। यहां स्पष्ट रूप से भावश्रुत और द्रव्यश्रुत की ओर संकेत है। अक्षर प्रकृति का अर्थ है- द्रव्यश्रुत; और अलिपि का अर्थ है-भावश्रुत । अक्षरों से लिखे गए श्रुत साहित्य से परमात्मा प्राप्त होता है। १११ किसी जीव को बिना कोई अक्षर पढ़े परमात्मा मिल जाता है किन्तु यह तभी संभव है जब मन नितांत शुद्ध हो और पूर्व संस्कार प्रबल हों, इसी संदर्भ में श्री समन्तभद्राचार्य का कथन उल्लेखनीय है - अज्ञानान्माहिनो बन्धो, नाऽज्ञानद्वीत मोहत:। ज्ञानस्तोकाच्च मोक्ष: स्यादमोहान्मोहिनोऽन्यथा ॥ अर्थ-अज्ञान से बंध होता है यदि वह मोह सहित है किन्तु उस अज्ञान से बंध नहीं होता जो मोहरहित है, इसी भांति उस अल्पज्ञान से भी मोक्ष हो सकता १०९. इष्टोपदेश, आचार्य पूज्यपाद, श्लोक-५० ११०.आत्मानुशासन, गुणभद्राचार्य, सोलापुर प्रकाशन गा. १२२-१२४ १११. कल्याण मंदिर स्तोत्र, श्लोक-३० १०६. अष्टपाहुड, सूत्र पाहुड, गाथा-२, पृष्ठ ४० १०७. अष्टपाहुड़, कुन्दकुन्दाचार्य, सूत्रपाहुड-गाथा-६ १०८.श्री अध्यात्मवाणी, ज्ञान समुच्चयसार, गाथा 76 पृ.-३० ८४
SR No.009720
Book TitleOm Namo Siddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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