SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पत्रकार था। ७३ पद है सो जीव को बतलाने वाला है। इस प्रकार अपने-अपने सत्य अर्थ के होता है कि सिद्ध मातृका का प्रारंभ 'ॐ नम: सिद्धम्' से करने का सर्वत्र प्रचलन प्रकाशक अनेक पद उनका जो समुदाय सो श्रुत जानना । पुनश्च जिस प्रकार मोती तो स्वयं सिद्ध है, उनमें से कोई थोड़े मोतियों को, कोई बहुत मोतियों को, 'बृहद् जैन शब्दार्णव' के प्रथम खण्ड में लिखा मिलता है कि- "उस कोई किसी प्रकार, कोई किसी प्रकार गूंथकर गहना बनाते हैं; उसी प्रकार पद तो ब्राह्मी नामक मूल अक्षर लिपि ६४ अक्षरों की अक्षरावली को 'सिद्ध मातृका' भी स्वयं सिद्ध है, उनमें से कोई थोड़े पदों को, कोई बहुत पदों को, कोई किसी प्रकार कहते हैं; इसलिये कि ऋषभदेव स्वयम्भू भगवान ने जो स्वायम्भुव व्याकरण की कोई किसी प्रकार गूंथकर ग्रंथ बनाते हैं। ७१ सर्वप्रथम रचना की, उसमें प्रथम 'ॐ नमः सिद्धम्' लिखकर अक्षरावली का यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि पं. टोडरमल जी ने जो लिखा कि अक्षरों का प्रारंभ किया, जो समस्त श्रुतज्ञान अथवा शास्त्र ज्ञान को सिद्ध करने का मूल सम्प्रदाय सो स्वयं सिद्ध है, जैसे मोती स्वयं सिद्ध है, इससे वर्ण मातृका की स्वयं है।७४ सिद्धता असंदिग्ध है। पं.जी ने उसे अनादि निधन कहा है। वह व्याकरण ग्रंथों जैन दर्शन में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती का विशिष्ट स्थान है, की भांति आदि निधन नहीं है। उनके द्वारा रचित ग्रंथ प्रामाणिक माने जाते हैं। उन्होंने गोम्मटसार जीवकाण्ड में अपने सिद्ध स्वरूप के आराधन पूर्वक सिद्ध मातृका का अध्ययन निश्चित । मूल वर्णमाला को अनादि निधन कहा है - रूप से लौकिक शिक्षा में भी अध्यात्म के प्राण संचार करने वाला रहा। इस विधि तेत्तीस वेंजणाई, सत्तावीसा सरा तहा भणिया। से पूर्वकाल में हुए सत्पुरुषों ने भी सरस्वती को सिद्ध किया है। आचार्य वादीभ चत्तारि यजोगवहा, चउसट्ठी मूल वण्णाओ॥ सिंह द्वारा रचित छत्र चूडामणि ग्रंथ जो आध्यात्मिक शिक्षा के साथ जीवन्धर की अर्थ- तेतीस व्यंजन, सत्ताईस स्वर, चार योगवाह इस तरह कुल ६४ कथा कहता है। मूल वर्ण होते हैं। कथा के माध्यम से यह ग्रंथ लौकिक और अलौकिक दोनों ही तत्त्वों की स्वर के बिना जिसका उच्चारण न हो सके ऐसे अर्धाक्षरों को व्यंजन कहते बात स्पष्ट करता है, इसी ग्रंथ का यह कथन द्रष्टव्य है - हैं, उनके क्,ख, सेह पर्यन्त तेतीस भेद हैं। अ, इ, उ, ऋ,ल, ए, ऐ, ओ, औ, निष्प्रत्यूए सिद्धयर्थ सिद्ध पूजादिपूर्वकम् । यह नव अक्षर हैं, इनके ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत की अपेक्षा सत्ताईस भेद होते हैं, सिद्ध मातृकया सिद्धामथ लेभे सरस्वतीम् ॥ अनुस्वार विसर्ग, जिव्हामूलीय और उपधमानीय यह चार योगवाह हैं यह सब अर्थ- अनन्तर निर्विघ्न विद्या प्राप्ति के हेतु सिद्ध पूजादि पूर्वक उसने । मिलाकर चौंसठ अनादिनिधन मूलवर्ण हैं। इसको ही वर्ण समाम्नाय कहते हैं । ७५ (जीवंधर ने) सिद्ध मातृका-अ, इ, उ, क, ख, आदि वर्णमाला सीखना आरम्भ श्री नेमिचन्द्राचार्य जी ने अन्य आचार्यों की तरह वर्ण समाम्नाय को अनादि किया और इस प्रकार सरस्वती को सिद्ध कर लिया। ७२ माना है; किन्तु आचार्य उसे सादि भी कहते हैं क्यों कि वर्ण आकार इस प्रसंग में सिद्ध मातृका सीखने के पहले जो सिद्ध की पूजन की बात ग्रहण करते हैं और उनमें परिवर्तन भी होता है इस अपेक्षा द्रव्यश्रुत को आदि और कही गई है वह भी सिद्ध को नमन करने के अर्थ में ही है। सिद्ध पूजन 'ॐ नमः भावश्रुत को अनादि माना है। गोम्मटसार का यह कथन जैन दर्शन के स्याद्वाद सिद्धम्' से ही प्रारंभ होता है। दोनों में कोई अंतर नहीं है। सिद्धांत को सिद्ध करता है और अनेकांतात्मक परम्परा के अनुकूल है। "ॐ नम: सिद्धम्' से प्रारंभ होने वाली सिद्ध मातृका के संबंध में राष्ट्र संत आचार्य नेमिचंद्र महाराज ने चामुण्डराय की प्रेरणा से गोम्मटसार की रचना पूज्य आचार्य विद्यानंद जी को राजस्थान में एक पट्टिका प्राप्त हुई है, उस पर की थी। चामुण्डराय गंगनरेश राचमल्ल के मंत्री थे। चामुण्डराय को गोम्मटराय बारहखड़ी लिखी है और उसका प्रारंभ 'ॐ नमः सिद्धम्' से ही हुआ है। आर्कियोलॉजी (पुरातत्त्व) विभाग ने उसे २०० वर्ष पुराना माना है। इससे सिद्ध ७३. ओनामा सीधम: डॉ. प्रेमसागर जैन, पृष्ठ ४०, दिल्ली प्रकाशन १९८९ ७४. वृहत् जैन शब्दार्णव, प्रथम खण्ड, बी. एल.जैन संपादित, स्वल्पार्ध ज्ञान ७१. मोक्षमार्ग प्रकाशक, पं. टोडरमल जी, पं. टोडरमल स्मारक ट्रस्ट जयपुर रत्नमाला, बाराबंकी से प्रकाशित, पृष्ठ ३८ प्रकाशन १२ वीं वृत्ति १९९५, पृ.९-१० ७५. गोम्मटसार जीवकांड, श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद् राजचंद्र आश्रम ७२.छत्रचूडामणि, आचार्य वादीभसिंह,१/११२ अगास, पृ.- १७९, ईस्वी सन् १९८५ षष्टम वृत्ति। ७२ ७३
SR No.009720
Book TitleOm Namo Siddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy