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________________ निरु निश्चैनय जानन्ते, सुद्ध तत्व विधीयते। ममात्मा गुनं सुद्ध, नमस्कारं सास्वतं धुवं ॥ आत्मा ॐकार मयी पंच परमेष्ठी पदधारी शुद्ध-बुद्ध श्रेष्ठ ज्ञान स्वरूप परमात्मा है। जो जीव अपने शुद्ध स्वभाव में लीन होकर ऊर्ध्व गमन करते हैं, वे त्रिकाली चैतन्य स्वरूप शाश्वत स्वभाव में लीन होकर अर्थात् स्वभाव का वरण कर निर्विकल्प मोक्ष सुख में सदा विराजते हैं, वे सिद्ध परमात्मा ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव में लीन रहते हैं। अनुपम, अविनाशी पद के धारी सिद्ध परमात्मा के समान ही अत्यंत महिमावान मेरा भी शुद्ध सत्स्वरूप है। अध्यात्म शिरोमणि पूज्य श्री ज्ञानानंद जी महाराज इस ग्रंथ की अध्यात्म सूर्य टीका में लिखते हैं "ज्ञानीजन परमशुद्ध निश्चय से जानते हैं कि मैं शुद्धात्मा सर्व कर्मों से भिन्न हं.सिद्धों के समान मेरा स्वरूप है। ज्ञानी निज शुद्धात्म तत्त्व का अनुभव करते हैं। जैसे सिद्ध परमात्मा शुद्ध अशरीरी अविकारी निरंजन हैं वैसा ही मेरा आत्म स्वरूप है, उनके गुणों के समान ही मेरे गुण सदैव शुद्ध हैं, जो समस्त पर संयोगों से भिन्न अपने में ही चित्प्रकाशमान हो रहा है, ऐसे शाश्वत ध्रुव स्वभाव को मैं नमस्कार करता हूं, यह अनुभवन ही धर्म है। धर्म, यह वस्तु परम तत्त्व बहुत गुप्त रहा है। यह बाह्य आचरण, बाह्य शोधन, बाह्य ज्ञान से मिलने वाला नहीं है । अपूर्व अंत: शोधन से यह प्राप्त होता है। अपने शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति बोध होना यह अंत: शोधन कोई विरले महा भाग्य जीवों को उपलब्ध होता है । इस जीवन के थोड़े सुख के लिए अनंत भव के अनंत दु:खों को बढ़ाना ज्ञानी बुधजन उचित नहीं मानते, इसी जीवन में मुक्त होने का सत्पुरुषार्थ करते हैं। ज्ञानी जनजानते हैं कि जैसे सिद्ध भगवान किसी के आलंबन बिना स्वयमेव पूर्ण अतीन्द्रिय ज्ञानानंद स्वभाव से परिणमन करने वाले दिव्य सामर्थ्य वंत देव हैं,तादृश सभी आत्माओं का स्वभाव भी है। ऐसा ही निरालम्बी ज्ञान और सुख स्वभाव रूप मैं हूँ। ऐसा लक्ष्य में लेने पर ही जीव का उपयोग अतीन्द्रिय होकर पर्याय में ज्ञान और आनंद खिल जाता है। इस तरह आनंद का अगाध सागर सिद्ध के समान निज शुद्धात्मा उसकी प्रतीति में, ज्ञान में, और अनुभूति में आ जाता है। (पंडित पूजा गाथा १-२ की टीका से) ॐ नम: सिद्धम् इसीलिये महिमामय मंत्र है क्योंकि अपने ॐकार मयी सिद्ध स्वभाव के अनुभव को संजोये हुए है। साधक का इष्ट आराध्य भी निज शुद्धात्म स्वरूप ही है। इसी की साधना आराधना से स्वयं सिद्ध हुआ जाता है। जो पहले सच्चे देव,अरिहंत सिद्ध परमात्मा के स्वरूप को जानकर चिंतन-मनन करते हैं और लक्ष्य में लेते हैं कि ऐसा ही मेरा सत्स्वरूप है, ऐसी अनुभूति युतश्रद्धानज्ञानाराव शाश्वत स्वरूप को नमस्कार करते यह नमस्कार ही वास्तविक नमस्कार। यह अनुभूति आत्मा ही है। इसे शुद्ध नय कहो, आत्मा कहो सब एक ही है, अलग नहीं। यहाँ यह बात संपूर्ण वस्तु की अपेक्षा से है। निश्चय से अनुभूति तो द्रव्य का परिणाम है, द्रव्य नहीं, यह द्रव्य से भिन्न है परन्तु जैसा द्रव्य त्रिकाल शुद्ध है, वैसे ही शुद्ध की जो अनुभूति हुई वह अनुभूति आत्मा की जाति की है इसलिये आत्मा ही है ऐसा कहा है, जैसे- राग भिन्न चीज है वैसे अनुभूति भिन्न नहीं इसलिये आत्मा ही है। यह जिनेन्द्र का मार्ग अर्थात् आत्मा का मार्ग है। यह सिद्ध स्वरूपी आत्मा नित्य, ध्रुव, आदि अंत रहित, परम पारिणामिक भाव रूप अखंड अभेद वस्तु है, त्रिकालशुद्ध है। इसे वर्तमान दशा रूप से देखने पर तो पर्याय है, परन्तु शुद्ध चैतन्य घन शाश्वत एक ज्ञायक भाव की दृष्टि होने पर पर्याय का भेद गौण हो जाता है। द्रव्य का अनुभवन पर्याय में होता है, परन्तु पर्याय का भेद उसमें गौण हो जाता है। वर्तमान पर्याय त्रिकाली में दृष्टि करके झुके वहां अभेद एक रूप आत्मा का अनुभव होता है यह सिद्ध स्वरूप का अनुभव ही सिख स्वभाव की यथार्थ वंदना है। स्वभाव की अनुभूति से पर्याय में भी सिद्धत्व प्रगट हो जाता है, इस तीसरी गाथा में ॐ नम: सिद्धम् मंत्र को समाहित करते हुए कारण कार्य का कथन किया है और यही ज्ञानी की सच्ची देव पूजा है यह बतलाया है - ॐनमः विंदते जोगी, सिद्धं भवति सास्वतं। पण्डितो सोपि जानन्ते, देव पूजा विधीयते ॥३॥ इस गाथा में 'उवं नम:' पद ऊंकार स्वरूप को नमस्कार स्वीकार एकत्व के अर्थ में है, अभिप्राय यह है कि योगी जन ऊंकार स्वरूप का एकत्वमय अनुभव वेदन करते हैं, 'उवं नम:' इस अनुभव के बल पर ही वे सिद्ध हो जाते हैं, 'सिद्धं भवति सास्वतं' शाश्वत सिद्ध पद को प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार इस गाथा सूत्र में ॐ नम: सिद्धम् मंत्र कारण कार्य के रूप में स्पष्ट हुआ है कि अपना सिद्ध स्वरूप कारण परमात्मा है, इसका अनुभवन करने पर कार्य परमात्मा सिद्ध पद की प्राप्ति होती है। इस सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए श्री गुरु तारण स्वामी ने श्री ज्ञान समुच्चय सार जी ग्रंथ में कहा है -
SR No.009720
Book TitleOm Namo Siddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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