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________________ विराजमान हो सकते हैं और हैं। उससे बहुत ऊपर लोक के शिखर पर विराजमान रहते हैं। सिद्धशिला, सिद्ध सिद्ध परमात्मा वहां से कभी भी लौटकर नहीं आते क्योंकि न वहां मृत्यु है, परमात्माओं से बहुत नीचे है। सिद्धों के और सिद्ध शिला के बीच में और कोई न बुढापा है, न संयोग-वियोग है और न रोगादिक हैं। इन सबका संबंध शरीर से रचना नहीं है। सर्वार्थसिद्धि का विमान सिद्ध शिला के नीचे है। यह सिद्ध शिला होता है और मुक्त अशरीरी होते हैं। इसी कारण कहा भी है आठवीं पृथ्वी है. जिससे ऊपर लोक के अंत में सिद्ध प्रभु अनन्त गुण युक्त सानंद जाइजरामरण भया, संजोग विओगदु:ख सण्णाओ। विराजमान रहते हैं। रोगादिया भ जिस्से,ण संति सा होदि सिद्ध गई॥ संमत्त न्यान देसन, बल वीरिय सहमहेव च। ॥गोम्मट्टसार जीवकांड-१५२॥ अवगाहन गुन समिधं, अगुरुलघु तिलोय निम्मलं विमलं ॥ जिसमें जन्म, जरा, मरण का भय, संयोग-वियोग का दु:ख और रोग ॥ज्ञान समुच्चय सार-६५४॥ आदि नहीं होते वह सिद्ध गति है। संक्षेप में सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप इस प्रकार सिद्ध परमात्मा तीनों लोक में विमल निर्मल ज्ञानावरणादि आठों कर्मों से रहित हैं और क्षायिकसम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतवीर्य, सूक्ष्मत्व, अट्ठ विह कम्म वियला, सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा। अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व, अव्याबाधत्व इन आठ गुणों से मंडित हैं,अपने आत्म अट्ट गुणा किदकिच्चा,लोयग्ग णिवासिणो सिद्धा ॥ स्वरूप में लीन होकर जो कर्म रहित अक्षय अविनाशी पद प्राप्त करते हैं वे ही ॥ गोम्मट्टसार जीवकांड-६८॥ महान सिद्ध परमेष्ठी हैं। जो आठ कर्मों से रहित हैं, अनंत सुख में मग्न हैं,निरंजन हैं, नित्य हैं, आठ गुणों से सहित हैं, कृतकृत्य हैं और लोक के अग्र भाग में रहते हैं वे सिद्ध सिद्ध प्रभु का आनन्द विलास परमेष्ठी हैं। सहज शुद्ध परमानन्द एक अखण्ड स्वभाव रूप जो आत्म सुख उससे विपरीत जो चतुर्गति के दु:ख, उनसे रहित हैं, जन्म-मरण रूप रोगों से रहित हैं, सिद्ध प्रभु की अनुपम गुण संपन्नता अविनश्वरपुर में सदाकाल रहते हैं। जिनका ज्ञान संसारी जीवों की तरह विचार श्री गुरु तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज ने मुक्तिगत सिद्ध परमात्मा रूप नहीं है कि किसी को पहले जानें, किसी को पीछे जानें.उनका केवलज्ञान का स्वरूप बताया है - और केवलदर्शन एक ही समय में सब द्रव्य सब क्षेत्र सब काल और सब भावों को सिद्धं सिद्धि संपत्तं, अह गुनं न्यान केवलं सुद्धं । जानता है। लोकालोक प्रकाशी आत्मा निज भाव अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अद्भुमि पुहमि समिधं, सिद्ध सरुवं च सिद्धि संपत्तं ॥ अनंतसुख और अनंतवीर्यमयी है। ऐसे अनंत गुणों के सागर भगवान सिद्ध परमेष्ठी ॥ज्ञान समुच्चय सार-६५३॥ स्व द्रव्य, स्व क्षेत्र, स्व काल, स्व भाव रूप चतुष्टय में निवास करते हुए सदा सिद्ध परमात्मा सिद्धि की संपत्ति के स्वामी हैं, आठ गुणों से सहित निर्मल आनंद रूप लोक के शिखर पर विराज रहे हैं, जिसका कभी अंत नहीं, उसी सिद्ध केवलज्ञान मय हैं, आठवीं पृथ्वी पर स्थित सिद्ध परमात्मा अपने स्वरूप में लीन । पद में सदाकाल विराजते हैं। सकल कर्मोपाधि रहित महानिरुपाधि निराबाधपना सिद्धि की संपत्ति से समृद्धवान हैं। सिद्ध प्रभु अनुपम गुणों से युक्त हैं, उनके गुणों आदि अंनत गुणों सहित मोक्ष में आनंद विलास करते हैं। की उपमा किसी से नहीं हो सकती है। न गुण में उपमा है, न अनुभव में उपमा है। जब तक यह सिद्ध अवस्था नहीं होती तब तक आत्मा के संयोग में संसार के सिद्ध प्रभु की अलौकिक सम्पन्नता संकट लगे हुए हैं, आत्मा का पूर्ण हित, आत्यंतिक हित एक मोक्ष अवस्था ही है। सिद्धं सहाव सुद्ध, केवल दंसन च न्यान संपन्न । सिद्ध भगवान आठवीं पृथ्वी पर अवस्थित हैं। सात नरक सात पृथ्वियों में केवल सुकिय सुभावं, सिद्धं सुद्धं मुनेअव्वा ॥ हैं इसलिए सात पृथ्वियों के भीतर बड़े लम्बे चौड़े, योजनों के पोल हैं, उन पोलों में नारकी जीव रहते हैं और आठवीं पृथ्वी है सिद्धशिला, उस पर सिद्ध बैठते नहीं हैं, ॥ ज्ञान समुच्चय सार-६५५॥ १९
SR No.009720
Book TitleOm Namo Siddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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