SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९५ :दाहा: गुरू गौतम के पद कमल, हृदय सरोवर आन । नमो चरण युग भाव सों, करिहूं बहु विधि ध्यान ।। तत्पश्चात् राजा श्रेणिक अनेकों प्रश्न पूछते भये और भगवान की दिव्यध्वनि खिरती भई, इनकी श्रद्धा सहित वन्दना भक्ति देख गणधरादि श्रुतकेवली सन्तुष्ट होय उपदेश करते भये।। समवशरण चौसंघ सो अचरज मन भयो । जैन धर्म पहिचान महोत्सव उठ चल्यौ । हरषत वीर जिनेन्द्र, श्रेणि सन्मुख भये । विश्वसेन दातार, शाह पद जिन दिये ॥ शाह पद त्रैलोक जानो, तीर्थंकर गोत्र सुनाइयो । वीर को प्रसाद प्रगटौ, तिलक जिन चौबीसियो || सोई शाह सूरो ज्ञान पूरो, दया धर्म सुनाइयो । अगम गम प्रवेश पहुँचे, सिद्ध मंगल गाइयो | मिथ्यात्व दलन सिद्धान्त साधक, मुकति मारग जानियो । करनी अकरनी सुगति दुर्गति, पुण्य पाप बखानियो । संसार सागर तरण तारण, गुरू जहाज विशेषियो । जग माहिं गुरू सम कहें बनारसी, और काहू न लेखियो । भावी तत्त्व प्रसाद कौन को दियो? महाराजाधिराज राजा श्रेणिक को दियो। राजा उप श्रेणिक के १०० पुत्र, जिनमें ४९ से लहुरे, ५० से जेठे, मध्य नायक पूरा (पूर्व) क्षेत्री बारे को पुण्य प्रताप, राजा श्रेणिक ने प्रसाद पायो। जब ३९१९ आत्माओं सहित भगवान की वन्दना स्तुति करके जय जयकार किया। : गाथा : श्रेणीय कथ्य नायक संतुट्ठो वीर वड्ढमानस्य । आदं च महापद्मो, आद उववन्न तुरिय कालम्मि || हे राजा श्रेणिक ! तुम कथा के नायक होओगे अर्थात् आगामी चौथे काल के आदि में पद्मपुंग राजा के यहाँ महापद्म तीर्थंकर होओगे। तब राजा श्रेणिक ने कहा - मुनीश्वरों के वचन सत्य हैं, ध्रुव हैं, प्रमाण हैं। || जयन् जय बोलिये जय नमोऽस्तु ॥ चलंति तारा प्रचलंति मंदिरं, चलंति मेरू रविचंद्र मंडलम् । कदापि काले पृथ्वी चलंति, सत्पुरूषस्य वाक्यं न चलंति धर्मम् ।। अपनो पद परसत राजा श्रेणिक आनन्द पूर्ण भये । भगवान महावीर स्वामी ने केवलज्ञान होने पीछे ३० वर्ष पर्यन्त, संघ सहित विहार कर जग के जीवों का कल्याण किया। तत्पश्चात् आहूट महीना हीनो वर्ष चउकाल तुरिय कालम्मि । अर्थात् - चौथे काल के अन्त में ३ वर्ष साढ़े आठ माह शेष रहने पर भगवान महावीर ने अपनी ७२ वर्ष की आयु पूर्ण कर कार्तिक वदी चतुर्दशी की रात्रि के पिछले पहर स्थान पावापुरी से निर्वाण पद प्राप्त किया। ॥जयन् जय बोलिये जय नमोऽस्तु ॥ आशा एक दयालु की,जो पूरे सब आश | संसार आस सब छोड़ि के,प्रभु भये मुक्ति के वास ॥
SR No.009719
Book TitleMandir Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages147
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy