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________________ ७४ शुभ विचार वाला जो मनस्वी प्राणी कुटिल भाव व मायाचारी के परिणामों को छोड़कर शुद्ध हृदय से चारित्र का पालन करता है वह भव्य जीव आर्जव धर्म का धारी होता है। निश्चय अपेक्षा - योग की वक्रता के साथ - साथ उपयोग की अस्थिरता को छोड़कर ज्ञान विज्ञानमयी सहज सरल ममल स्वभाव में रहना उत्तम आर्जव धर्म है। ४. उत्तम सत्य धर्मव्यवहार अपेक्षा-श्री जिनेन्द्र भगवान के कहे अनुसार आचारों का पालन करने में असमर्थ होते हुए भी जिन वचनों का यथावत् कथन करना, सिद्धांत से विपरीत कथन नहीं करना यह उत्तम सत्य है। धर्म की वृद्धि के लिये धर्म सहित हितमित प्रिय वचन कहना उत्तम सत्य धर्म है। इस धर्म के व्यवहार की आवश्यकता शिष्य समुदाय के लिये ज्ञान चारित्र सिखाने के लिये होती है। निश्चय अपेक्षा- शरीरादि अचैतन्य संयोग और रागादि असत् भावों को त्याग कर त्रिकाली शाश्वत सत्स्वरूप की अनुभूति करना एवं उसी में लीन होना उत्तम सत्य धर्म है। ५. उत्तम शौच धर्मव्यवहार अपेक्षा - धन आदि संयोगी पदार्थों में यह मेरे हैं ऐसी अभिलाषा रूप बुद्धि ही मनुष्य को संकटों में डालती है, इस ममत्व को हृदय से दूर करना ही शौच धर्म है। जो जीव समभाव पूर्वक संतोष रूपी जल से मल समूह को धो देते हैं वह मनस्वी प्राणी शौच धर्म के धारी होते हैं। निश्चय अपेक्षा - सम्यग्ज्ञान पूर्वक सहज स्वभाव में रमण करना, अतीन्द्रिय अमृत रस का भोग करना, इच्छा और रागादि का भोग विलय हो जाना उत्तम शौच धर्म है। ६. उत्तम संयम धर्मव्यवहार अपेक्षा - बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह का त्याग, मन वचन काय रूप व्यापार से निवृत्ति, इन्द्रिय विषयों से विरक्ति, कषायों पर विजय और व्रतादि का पालन करना संयम धर्म है। निश्चय अपेक्षा- मन के समस्त संकल्प - विकल्पों से मुक्त होकर ज्ञाता स्वभाव में रमण करना, आत्मा का आत्मा में संयमन करना उत्तम संयम धर्म है। ७. उत्तम तप धर्म - व्यवहार अपेक्षा - अपनी शक्ति को न छिपाकर काय क्लेश आदि करना तप है। जो समभाव से युक्त मोक्षार्थी जीव इस लोक और परलोक के सुख की अपेक्षा न करके अनेक प्रकार का काय क्लेश करता है उसको निर्मल तप धर्म होता है। निश्चय अपेक्षा - " समस्त रागादि इच्छा परिहारेण स्व स्वरूपे प्रतपनं विजयनं इति तपः "। समस्त रागादि भाव और इच्छा का परिहार कर स्व स्वरूप में लीन रहना, अपने आपमें प्रतपन करना उत्तम तप धर्म है। ८. उत्तम त्याग धर्म - व्यवहार अपेक्षा - जो मिष्ट भोजन को, राग - द्वेष को उत्पन्न करने वाले उपकरण को और ममत्व भाव के उत्पन्न होने में निमित्तभूत वसति को छोड़ देता है उस मुनि को उत्तम त्याग धर्म होता है। निश्चय अपेक्षा - समस्त पर पर्यायों का त्याग कर, भय शल्य शंकाओं से रहित होकर अमृतमयी
SR No.009719
Book TitleMandir Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages147
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size1 MB
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