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________________ ६९ धम्म आयरन फूलना गुन आयरन धम्म आयरनं, आयरन न्यान पय परम पयं । तव आयरन जिनय जिन उत्तं, आयरन तिअर्थ सु ममल पयं ॥ उव सम षिम रमन स ममल पयं ॥ १ ॥ (गुन आयरन धम्म आयरन) गुणों में आचरण करना ही धर्म का आचरण है (आयरन न्यान) ज्ञान पूर्वक इस आचरण से (पय परम पयं) परम पद की प्राप्ति होती है (जिन उत्तं) श्री जिनेन्द्र भगवान कहते हैं कि (जिनय) स्वभाव को जीतने अर्थात् स्वभाव में लीनता रूप (तव आयरन) तपश्चरण को धारण करो (तिअर्थ सु ममल पर्य) रत्नत्रयमयी अपने ममल पद में लीन रहना (आयरन) सम्यक्चारित्र है (उव) परमात्म सत्ता स्वरूप (सु ममल पर्य) अपने ममल पद में (सम) सम भाव [वीतराग भाव] पूर्वक (रमन) रमण करना (विम) उत्तम क्षमा आदि धर्म है। उव उवन पयं उव समय समं, तं विंद रमन उव सुन्न समं । उव उवन सरनि विष विषम रमनि,उत्पन्न षिपिय जिननाथ सुयं ॥ भवियन, भय षिपिय अमिय रस मुक्ति जयं ॥ २॥ आचरी॥ (उव उवन पर्य) ओंकारमयी परमात्म स्वरूप निज पद उदित हुआ है (उव समय सम) शुद्धात्मा ही परमात्म स्वरूप है (उव सुन्न सम) ओंकारमयी शून्य स्वभाव के आश्रय से (तं विंद रमन) निर्विकल्प स्वानुभूति में लीन रहो (सुयं) अपने (उव) परमात्म सत्ता स्वरूप (जिननाथ) जिनेन्द्र पद को (उत्पन्न) प्रकट करो, इससे (उवन सरनि) संसार में जन्म - मरण का होना और (विष विषम रमनि) दुःखदाई रागादिरूप विष में रमण करना (पिपिय) हमेशा के लिये छूट जायेगा (भवियन) हे भव्यात्मन् ! (भय षिपिय) भयों को क्षय करने वाले (अमिय रस) अमृत रस में रमण करके (मुक्ति जयं) मुक्ति को प्राप्त करो। उत्तम षिम उवन उवन जिनु रमनं, उववन्न कम्मु विलयंतु सुयं । उत्पन्न षिपिय भय षिपक रमन जिनु, तं न्यान अमिय रस ममल पयं ॥ उव सम षिम रमन सु ममल पयं ॥ ३ ॥ ॥ उव उवन ॥ (उवन उवन जिनु रमन) अपने जिन स्वभाव के स्वानुभव में लीन रहना (उत्तम षिम) उत्तम क्षमा धर्म है, इससे (उववन्न कम्मु) कर्मों का उत्पन्न होना (विलयंतु सुर्य) स्वयं विला जाता है (उत्पन्न पिपिय) अपने क्षायिक भाव को उत्पन्न करो (रमन जिनु) जिन स्वभाव में रमण करो, इससे (भय विपक) भय क्षय हो जायेंगे (तंन्यान अमिय रस) ज्ञानमयी अमृत रस से परिपूर्ण (ममल पयं) ममल पद में लीन रहो यही उत्तम क्षमा धर्म है। सार सिांत- स्वभाव के आश्रय से क्रोध कषाय का अभाव होना उत्तम क्षमा धर्म है। मय मूर्ति तं अर्क रमन जिनु, दर्स दर्स उत्पन्न रसं । वारापार अपार रमन जिनु, दिस्टि सब्द उत्पन्न जिनं ॥ उव सम षिम रमन सु ममल पयं ॥ ४ ॥ || उव उवन ॥ (तं अर्क) परम दैदीप्यमान (मय मूर्ति) पूर्ण प्रकाशमयी चैतन्य मूर्ति (जिनु रमन) वीतराग जिन स्वभाव में रमण करो (दर्स दर्स उत्पन्न रस) देखो देखो ! स्वानुभव में अतीन्द्रिय अमृत रस उत्पन्न हो रहा है (वारापार अपार) यह
SR No.009719
Book TitleMandir Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages147
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size1 MB
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