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________________ ११६ lieli DIDES माता ! ये पद पद्म तुम्हारे, हमसे कभी न छूटे । छूटे ही तो तब जब 'चंचल' जन्म मरण से छूटे ॥ माँ ! तुम चन्दन हम पानी, हृदय समानी.....जय..... १०. वन्दना के स्वर वन्दना के स्वर समर्पित हैं, तुम्हें तारण तरण । भावना के स्वर समर्पित हैं, तुम्हें भव भय हरण || (तुम) वीतरागी धर्म मंदिर के हो उज्जवलतम शिखर । शांति समता और अहिंसा, धर्म की वाणी प्रखर ॥ दिग्भ्रांत मानवता के, पथदर्शक तुम्हीं अशरण शरण । वन्दना के स्वर समर्पित हैं, तुम्हें तारण तरण ॥ तुमने दिखाया, आत्मदर्शन का सही गन्तव्य है । चल पड़ा पहुँचा वही, जो चल रहा वो भव्य है ॥ आत्मदर्शन के सुपावन, शांतिदायी निर्झरण । वन्दना के स्वर समर्पित हैं, तुम्हें तारण तरण ॥ तुमने बताया रास्ता, इस जगत को सद्धर्म का । तमने दिया इक ज्ञान को, सदपंज जीवन मर्म का ॥ तुमने हटाये धर्म से, आडम्बरों के आवरण । वन्दना के स्वर समर्पित हैं, तम्हें तारण तरण ॥ तुम जो गाये गीत, वे चौदह ही ग्रंथों में भरे । जो कर सके अवगाह इनमें, आत्मा का सुख मिले । हर सूत्र 'वात्सल्य' दे रहे, संदेश आतम जागरण । वन्दना के स्वर समर्पित हैं, तुम्हें तारण तरण ॥ हे क्रांतदर्शी आत्मपर्शी, धर्म के दैदीप्यमान । प्रज्ञाश्रमण हे क्रांतिकारी, समन्वयवादी महान ॥ वीतरागी धर्म के हे, युगप्रवर्तक आभरण । वन्दना के स्वर समर्पित हैं, तुम्हें तारण तरण || ___ मनुष्य जन्म की दुर्लभता मनुष्य सब जन्मों का अंतिम जन्म है। इस जन्म में संसार के जन्म मरण रूप अनन्त दुःखों से मुक्त होने के लिए मौका मिला है। विवेक यही है कि दुर्लभता से प्राप्त इस अवसर को हाथ से नहीं गवांना चाहिये।
SR No.009719
Book TitleMandir Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages147
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size1 MB
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