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________________ १०८ ८ ज्ञानोपयोग मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान । ४ दर्शनोपयोग चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन । (८ ज्ञानोपयोग और ४ दर्शनोपयोग यही बारह उपयोग कहलाते हैं।) ३४ अतिशय - 1 , जन्म के १० अतिशय - १. स्वेद ( पसीना ) का अभाव, २. मल का अभाव, ३. दूध समान रुधिर, ४. समचतुरस्र संस्थान, ५. वजवृषभनाराच संहनन, ६. सुंदर रूप ७. अति सुंगधता, ८. १००८ लक्षण ९ अपरिमित बल, १०. हित मित वचन । केवलज्ञान के १० अतिशय १ सौ योजन तक चहुं ओर सुभिक्ष, २. आकाश में गमन ३. जीव वध का अभाव, ४. कवलाहार का अभाव, ५. उपसर्ग का अभाव, ६. चतुर्मुखपना, ७. सर्व विद्या ईश्वर पना, ८. छायारहित पना, ९. पलक नहीं झपकना, १०, नखकेश नहीं बढ़ना। - - - - देवकृत १४ अतिशय १. अर्धमागधीभाषा, २. सर्व जीव मैत्री, ३. सर्व ऋतु फलित वृक्ष, ४. दर्पण वत्भूमि, ५. सुगंधित वायु का बहना, ६. सर्व जीव आनन्द होना, ७. भूमि कंटक रहित होना, ८. सुगन्धित जल की वर्षा, ९. चरणों के नीचे कमलों की रचना होना, १०. धन धान्य संपन्न भूमि, ११. दशों दिशाओं का निर्मल होना, १२. जय जय शब्द होना, १३. धर्म चक्र आगे चलना, १४. अष्ट मंगल द्रव्यों का होना। (दर्पण, छत्र, ध्वजा, कलश, चॅवर, घंटा, झारी, पंखा ) ८ प्रातिहार्य - १. अशोकवृक्ष, २. देवों द्वारा पुष्प वर्षा, ३ . दिव्य ध्वनि, ४.६४ चँवर ढुरना, ५ . रत्न जड़ित सिंहासन, ६. भामण्डल, ७. दुन्दुभिशब्द, ८. तीन छत्र । १२ तप ६ अंतरंग तप १ प्रायश्चित, २. विनय, ३. वैयावृत्य, ४ स्वाध्याय ५. व्युत्सर्ग, ६. ध्यान । - - ६ बाह्यतप १ अनशन, २. अवमौदर्य, ३. वृत्तिपरिसंख्यान ४ रस परित्याग ५. विविक्त शय्यासन, ६. कायक्लेश । ६ आवश्यक- १. अस्तित्व, २. वस्तुत्व, ३. अप्रमेयत्व, ४. अगुरुलघुत्व, ५. अरूपत्व, ६. चेतनत्त्व । चौरासी लाख उत्तर गुण ८४ लाख उत्तर गुण आत्मा के विभाव परिणामों के बाह्य कारणों की अपेक्षा भेद होते हैं । - ८४ लाख दोषों के अभावरूप ८४ लाख उत्तर गुण जानना चाहिये । ८४ लाख भेद इस प्रकार हैं 1 १. हिंसा,२.झूठ, ३. चोरी, ४. मैथुन, ५. परिग्रह, ६. क्रोध, ७. मान, ८. माया, ९. लोभ, १०. भय, ११. जुगुप्सा, १२. अरति, ३. शोक १४. मनोदुष्टत्त्व, १५. वचनदुष्टत्त्व, १६. कायदुष्टत्त्व, १७. मिथ्यात्व, १८. प्रमाद, १९. पैशून्य, २० अज्ञान २१ इन्द्रिय का अनुग्रह ऐसे २१ दोष हैं। इनको अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार इन चारों से गुणा करने पर ८४ होते हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु प्रत्येक साधारण यह स्थावर एकेन्द्रिय जीव छह, विकलत्रय - ३, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय एक, इस प्रकार जीवों के दस भेद, इनका परस्पर आरंभ से घात होता है इसलिये इनको परस्पर गुणा करने से १०० होते हैं। इन १०० से उपरोक्त ८४ का गुणा करने पर ८४०० होते हैं । इनको शील विराधना के १० दोषों से गुणा करने पर ८४००० होते हैं । शील विराधना के १० दोष - १. स्त्री संसर्ग, २. पुष्ट रस भोजन, ३. गंध माल्य का ग्रहण, ४. सुन्दर शय्यासन का ग्रहण, ५. भूषण का मंडन, ६. गीत वादित्र का प्रसंग, ७. धन का संप्रयोजन, ८. कुशील का संसर्ग, ९. राज सेवा, १०. रात्रि
SR No.009719
Book TitleMandir Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages147
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size1 MB
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