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________________ [मालारोहण जी सम्यग्दृष्टि का मुख्य विचार एक ही रहता है कि जो लोभ क्रोधादि, प्रकृति वाले कर्म होते हैं, उन कर्मों के उदय के निमित्त से उत्पन्न हुये रागादिक भाव पर भाव हैं, ये मेरे स्वभाव नहीं हैं, मैं तो टंकोत्कीर्णवत् निश्चल स्वतः सिद्ध एक ज्ञायक स्वभाव रूप हूँ। इस विचार बल से ज्ञानी पर भावों से विरक्त रहकर उनको छोड़ देता है। शुद्ध नय की दृष्टि से देखा जाये तो चैतन्य भाव के अतिरिक्त जितने भाव हैं, वह परभाव कहे गये हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, सुख-दु:ख, विचार, कल्पना, संकल्प आदि सब औपाधिक भाव हैं, इनमें विचार बुद्धि जैसे भाव तो प्रकृति के क्षयोपशम से हैं। क्रोधादि भाव प्रकृति के उदय से हैं। तब ये सभी भाव अचेतन हैं। चेतन तो एक शुद्ध चैतन्य है। शुद्ध आत्म तत्व अविकार है, नित्य है, भेद दृष्टि से परे होने के कारण एक है, आत्मगुणों में व्यापक होने से व आत्मगुणों से बढ़ने के कारण ब्रह्म है। ऐसा स्वभाव होते हुये भी चूंकि प्रत्येक द्रव्य परिणमन शील है, सो आत्मा भी परिणमन शील है, अतः इस आत्मा की पर्यायें होती हैं, वे पर्यायें अनित्य हैं, अतः माया रूप कही जाती हैं, इस तरह ब्रह्म और माया की संधि है, अविकार होते हुये भी यह माया का आधार है। यह रहस्य जिन्हें प्रगट हो गया, वे विवेकी हैं और फिर माया की दृष्टि न रखकर जो एक परम ब्रह्म की दृष्टि रखते हैं, वे परम विवेकी हैं। समयसार के परिज्ञान का प्रयोजन निर्विकल्प समाधि की सिद्धि है । जिसके बल से समस्त कर्म कलंकों से मुक्त पूर्ण ज्ञान की सिद्धि व अनन्त आनन्द की निष्पत्ति होती है। १६१] जब तक यथाख्यात चारित्र नहीं होता, तब तक सम्यग्दृष्टि के दो धारायें रहती हैं- (१) शुभाशुभ कर्मधारा (२) ज्ञानधारा । उन दोनों के एक साथ रहने में कोई विरोध नहीं है। ऐसी स्थिति में कर्म अपना कार्य करता है और ज्ञान अपना कार्य करता है। जितने अंश में ज्ञान धारा है, उतने अंश में कर्म का नाश होता जाता है। मोक्षमार्गी (तारण पंथी ) जीव, ज्ञान रूप परिणमित होते हुये शुभाशुभ कर्मों को शुभाशुभ भावों को हेय जानते हैं और शुद्ध परिणति को गाथा क्रं. १४ ] ही उपादेय जानते हैं। वे मात्र अशुभ कर्मों को ही नहीं किन्तु शुभ कर्मों को भी छोड़कर स्वरूप में स्थिर होने के लिये निरन्तर उद्यमी रहते हैं, वे सम्पूर्ण स्वरूप स्थिर होने तक पुरूषार्थ करते ही रहते हैं। जब तक पुरूषार्थ की अपूर्णता, कमजोरी के कारण शुभाशुभ परिणामों से छूटकर स्वरूप में सम्पूर्णतया स्थिर नहीं हुआ जा सकता, तब तक यद्यपि स्वरूप स्थिरता का आन्तरिक आलम्बन अंत: साधन तो शुद्ध परिणति स्वयं ही है तथापि आन्तरिक आलम्बन लेने वाले को जो बाह्य आलम्बन रूप होते हैं, ऐसे देव, गुरू, शास्त्र, संयम, तप आदि शुभ परिणामों में वे जीव हेय बुद्धि से प्रवर्तते हैं किन्तु शुभ कर्मों को निरर्थक मानकर उन्हें छोड़कर स्वच्छन्द रूप से अशुभ कर्मों में प्रवृत्त होने की बुद्धि कभी नहीं होती। ऐसे एकान्त अभिप्राय से रहित जीव कर्मो का नाश करके संसार से निवृत्त होते हैं। जब अन्तरंग में ज्ञान और रागादि का भेद करने का तीव्र अभ्यास करने से भेदज्ञान प्रगट होता है, तब यह ज्ञात होता है कि ज्ञान का स्वभाव तो मात्र जानने का ही है, ज्ञान में जो रागादि की कलुषता, आकुलता रूप संकल्प विकल्प भाषित होते हैं, वे सब कर्मोदय जन्य पुद्गल विकार हैं इस प्रकार ज्ञान और रागादि के भेद का स्वाद आता है अर्थात् अनुभव होता है, तब आनन्दित होता है, परम आल्हाद रूप प्रमुदित प्रसन्न होता है। [ १६२ जिसे भेदविज्ञान हुआ है, वह आत्मा जानता है कि आत्मा कभी ज्ञान स्वभाव से छूटता नहीं है, ऐसा जानता हुआ वह कर्मोदय के द्वारा तप्त होता हुआ भी रागी, द्वेषी, मोही नहीं होता परन्तु निरन्तर शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है, जिस प्रकार लोहा आदि अपना स्वरूप नहीं छोड़ते । ज्ञानी जब आत्मा और कर्म के भेद विज्ञान के द्वारा शुद्ध चैतन्य चमत्कार मात्र आत्मा को उपलब्ध करता है, अनुभव करता है, तब मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योग स्वरूप अध्यवसान जो कि आश्रव भाव के कारण हैं, उनका अभाव होता है। अध्यवसानों का अभाव होने पर राग, द्वेष, मोह रूप आश्रव भाव का अभाव होता है। आश्रव भाव का अभाव होने पर कर्म का अभाव होता है। सम्यग्दृष्टि ज्ञानी को पच्चीस मल दोषों का अभाव होने पर यह
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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