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________________ १५५] [मालारोहण जी गाथा क्रं. १३] [ १५६ यहाँ साधु पद के लिए क्या करना पड़ता है? उसके सम्बन्ध में सद्गुरू बता रहे हैं कि जो भव्य जीव अर्थात् सम्यग्दृष्टि ज्ञानी, मूल गुणों का पालन करते हैं। यहाँ प्रश्न आता है कि यह मूलगुण क्या हैं? तो शुद्ध अध्यात्म दृष्टि से तो एक अपना शद्धात्म स्वरूप ममल स्वभाव ही साधने योग्य है, मैं ज्ञानमयी शुद्ध चैतन्य मात्र हूँ, ऐसा अपने चित्त में दृढ़ श्रद्धान पूर्वक आत्म ध्यान करना ही साधु पद है। इसके लिये व्यवहार में पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति का पालन करना तथा जैन आगम के अनुसार अट्ठाईस मूलगुण का पालन करते हुये,शुद्धात्मा का ध्यान करना साधु पद है। यहाँ अन्य सम्प्रदाय, दिगम्बर, श्वेताम्बर और आगम के अनुसार साधु की चर्या व्यवहारिक आचरण में मत मतान्तर भेद हैं। मूल में शुद्धात्म तत्व की साधना, आत्मध्यान में लीन होना, तो सबका लक्ष्य है, पर व्यवहार चारित्र में भेद है । स्वयं श्री जिन तारणस्वामी ने ज्ञान समुच्चय सार और ममल पाहुड़ जी में साधु चारित्र निम्न प्रकार बताया है - ज्ञान समुच्चयसार में गाथा क्रं.३६५से ६३० तक साधु के स्वरूप का वर्णन किया है जिसमें - दश धर्म से अहिंसा महाव्रत की शुद्धि, पंच चेल, दश दिशा, चौबीस परिग्रह, बारह तप, पाँच इन्द्रियां विजय होने पर होती है, तब साधु के दश सम्यक्त्व, पंच ज्ञान, तेरह विधि चारित्र, २८ मूलगुण प्रगट होते हैं। इनका कुछ वर्णन गाथा ११ में आ गया, विशेष ज्ञान समुच्चयसार का स्वाध्याय करें। ममल पाहुड फूलना क्रं. ९० से ९२,गाथा १८३६ से १८७६ तक साधु के अट्ठाईस मूल गुण - दश दर्शन, पाँच ज्ञान, तेरह विधि चारित्र (पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति) यह बताये हैं, इन्हें समझने के लिए ममल पाहुड का स्वाध्याय करें। जिसने आत्मा के मूल अस्तित्व को नहीं पकड़ा, स्वयं शाश्वत ध्रुव तत्व हूँ, अनन्त सुख से भरपूर हूँ ऐसा अनुभव करके शुद्ध परिणति की धारा प्रगट नहीं की, उसने भले सांसारिक इन्द्रिय सुखों को नाशवन्त और भविष्य में दुःख दाता जान कर छोड़ दिया हो और बाह्य मुनिपना ग्रहण किया हो, भले ही वह दुर्द्धर तप करता हो और उपसर्ग,परीषह में अडिग रहता हो तथापि उसे मुक्ति नहीं हो सकती, भले वह स्वर्गादिक देव गति चला जावे क्योंकि उसे शुद्ध परिणमन बिलकुल नहीं वर्तता, मात्र शुभ परिणाम ही रहते हैं, उन्हें ही उपादेय मानता है, वह भले ही नौ पूर्व का पाठी हो तथापि उसने आत्मा का मूलगुण द्रव्य सामान्य चैतन्य स्वरूप अनुभव पूर्वक नहीं जाना, इससे वह सब अज्ञान है। मुनिराज कहते हैं, हमारा आत्मा तो अनन्त गुणों से भरपूर अनन्त अमृत रस से भरपूर अक्षय घट है, उस घट में से पतली धार से अल्प अमृत रस पिया जाये, ऐसे स्वसंवेदन से हमें संतोष नहीं होता, हमें तो प्रति समय पूर्ण अमृत का पान हो, ऐसी पूर्ण दशा चाहिए। सच्चे भाव मुनि को तो शुद्धात्म द्रव्याश्रित मुनि योग्य उग्र शुद्ध परिणति चलती रहती है। कर्तापना तो सम्यग्दर्शन होने पर ही छूट गया है, उग्र ज्ञान धारा अटूट वर्तती रहती है, परम समाधि परिणमित होता है वे शीघ, शीघ, निजात्मा में लीन होकर निज आनंद का वेवन करते रहते हैं। उनके प्रचुर स्व संवेदन होता है। वह दशा अद्भुत है, जगत से न्यारी है। पूर्ण वीतरागता न होने से उनके व्रत, तप, ज्ञान, ध्यान, आदि चलता रहता है, परन्तु वे उसे उपादेय नहीं मानते, ऐसी पवित्र मुनि दशा मुक्ति का कारण है। सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् आत्म स्थिरता बढ़ते-बढ़ते बारम्बार स्वरूप की लीनता होती रहे. ऐसी दशा हो तब मनिपना आता है। मनि को स्वरूप की ओर ढलती हुई,शुद्धि इतनी बढ़ गई होती है कि वे घड़ी-घड़ी आत्मा में प्रविष्ट हो जाते हैं। पूर्ण वीतरागता के अभाव के कारण जब बाहर आते हैं, तब विकल्प तो उठते हैं, पर वे स्वाध्याय, ध्यान, व्रत सम्बन्धी मुनि योग्य शुभ विकल्प ही होते हैं, पर वे भी रूचते नहीं है। मनिराज को बाहर का कुछ भी नहीं चाहिए। बाह्य में एक शरीर मात्र का सम्बन्ध है। उसके प्रति भी परम उपेक्षा है। बड़ी नि:स्पृह दशा है। आत्मा की ओर ही लगन लगी है। छठे,
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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